अग्रलेख

विदेश नीति में क्रांतिकारी कदम

बलबीर पुंज

प्रधानमंत्री मोदी निकट भविष्य में इजरायल के दौरे पर जाने वाले हैं। वह पहले ऐसे भारतीय प्रधानमंत्री होंगे, जो अरब देशों को रुष्ट नहीं करने की सेकुलरवादियों की परंपरा को तोड़ते हुए यहूदी राष्ट्र की धरती पर कदम रखेंगे। मुस्लिम देशों को प्रसन्न करने की नीयत से ही भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सन् 1949 में संयुक्त राष्ट्र में इजरायल को शामिल किए जाने का विरोध किया था। मिस्र, जोर्डन, सीरिया, लीबिया, लेबनान, इराक आदि देशों के मुखर विरोध के कारण पं. नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का तब विरोध किया था। जबकि राष्ट्रनिष्ठ संगठनों ने पं. नेहरु के विपरीत उस प्रस्ताव का समर्थन किया था। वीर विनायक दामोदर सावरकर इजरायल की राष्ट्रीयता और संप्रभुता को सम्मान देने के हक में थे, किंतु तत्कालीन सत्ता अधिष्ठान तुष्टिकरण की नीति पर अड़ा रहा।
भारत के रक्तरंजित विभाजन के साथ मिली स्वतंत्रता और इजरायल की स्वाधीनता का समय करीब-करीब एक ही है। 1948 में इजरायल का स्वतंत्र भू-राजनीतिक अस्तित्व स्थापित हुआ, किंतु लंबे समय तक उसके साथ संबंध कायम करने से परहेज किया गया। पंडित जवाहर लाल नेहरू के कार्यकल से भारतीय विदेश नीति में साम्यवादियों का दशकों तक प्रभाव रहा है। 1978 में जब इजरायली राष्ट्रपति अपने विदेश दौरे के क्रम में दिल्ली हवाईअड्डा पहुंचे थे तो तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार ने औपचारिक शिष्टतावश उनका स्वागत किया था। साम्यवादियों ने इस पर खूब हायतौबा मचाई। किंतु वामपंथियों की बोलती तब बंद हुई, जब इजरायली स्रोतों ने सप्रमाण यह खुलासा किया कि पाकिस्तान और चीन के साथ संघर्ष के दौरान किस तरह तेल अवीब ने भारत की मदद की थी। इजरायल ने सन् 1962 और 1965 के युद्ध में गुप्त रूप से भारत की मदद की थी। तब इजरायल ने कुछ प्रमुख शस्त्रों के साथ शत्रु सेना से संबंधित गोपनीय सूचनाएं दिल्ली भेजी थीं। पारंपरिक रूप से इजरायल विरोधी रुख रखने के बावजूद इजरायल ने हमेशा भारत की मदद की है। माक्र्सवादियों का अलगाववादी चिंतन उन्हें फिलीस्तीन के साथ खड़ा करता है, किंतु कांग्रेस व माक्र्सवादियों की दशकों पुरानी यारी के बदले क्या कभी भी फिलीस्तीन ने संकट की घड़ी में भारत का साथ देने की शिष्टता दिखाई?
सन् 1992 में नरसिम्हा राव की सरकार ने इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किए। वाजपेयीजी के अधीन इजरायल के साथ राजनीतिक, वाणिज्यिक, सांस्कृतिक, विज्ञान व प्रौद्योगिकी, रक्षा आदि क्षेत्रों में व्यापक संबंध कायम हुए। सन् 2000 में तत्कालीन विदेशमंत्री जसवंत सिंह पहले विदेशमंत्री थे, जिन्होंने इजरायल का दौरा किया और उसके साथ संयुक्त 'एंटी टेरर कमीशनÓ गठित करने की पहल की थी।
भारत और इजरायल दोनों का ही इतिहास बहुत प्राचीन है। भारत में शक, यवन, हूण आदि के आक्रमण हुए, किंतु कोई आक्रांता इस कालजयी संस्कृति को नष्ट नहीं कर सका। किंतु इजरायल पर पहले ईसाइयत और बाद में इस्लामी हमलों का निरंतर दमन चक्र चला। भयावह उत्पीडऩ और नरसंहार के कारण उन्हें अपने ही वतन से पलायन कर अन्य देशों में शरण लेनी पड़ी। किंतु रूस, यूक्रेन, पूर्वी यूरोप में भी उन्हें घोर अमानवीय यातनाएं सहनी पड़ीं। नरसंहार और उत्पीडऩ सहकर भी यहूदियों ने अपने अंदर राष्ट्रवाद की लौ जलाए रखी। अपने वतन की तड़प ऐसी थी कि दुनिया के किसी भी कोने से कोई यहूदी दूसरे को पत्र लिखता था तो अंत में जल्दी ही यरुशलम में मिलने की कामना भी करता था। यह प्रखर राष्ट्रवाद ही इजरायल के अस्तित्व में आने का कारण बना। 1948 में इजरायली राज्य की स्थापना के साथ ही दो हजार वर्ष पूर्व खोई यहूदी स्वतंत्रता पुनर्जीवित हुई। बाइबल की मूल भाषा हीब्रू, जो लंबे समय तक प्रतिबंधित रही, एक सदी पूर्व यहूदी पुनर्जीवन के साथ पुन: जीवंत हो उठी।
एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपने उदय के बाद से ही इजरायल पर फिलीस्तीन और मध्यपूर्व में सक्रिय कई अन्य आतंकवादी संगठनों, जिन्हें शस्त्र और धन विभिन्न अरब देशों से प्राप्त होता है, के हमले होते रहे हैं। सीरिया और ईरान जैसे कुछ अरब राष्ट्र 'हिजबुल्लाÓ जैसे सर्वाधिक खतरनाक और हिंसक संगठनों का पोषण करते हैं। सीरिया में विभिन्न फिलीस्तीनी आतंकी संगठनों, जिनमें हमास और इस्लामी जिहाद शामिल है, का मुख्यालय स्थित है। किंतु अपने ऊपर हो रहे निरंतर हमलों के बावजूद इजरायल न केवल कारगर तरीकों से उनका प्रतिकार कर रहा है, बल्कि दुनिया में सम्मानपूर्ण वजूद बनाए रखने में भी सफल हुआ है।
इजरायल भूमध्यसागर के पूर्वी तटीय क्षेत्रों से सटा हुआ मध्यपूर्व में स्थित है, जो लेबनान, सीरिया, जोर्डन और ग्रीस से घिरा हुआ है। यह यूरोप, एशिया और अफ्रीका महादेशों के मिलन बिंदु पर स्थित है। इस्लामी देशों के लिए यहूदी राष्ट्र, इजरायल शुरू से ही खटकता रहा है। ईरान के पूर्व राष्ट्रपति अहमदेनिजाद ने तो सार्वजनिक तौर पर इजरायल को दुनिया के नक्शे से खत्म करने की धमकी दी थी। हमास का भी यही घोषित लक्ष्य है। 1972 में फीलीस्तीनी आतंकवादी म्यूनिख के ओलंपिक खेलगांव में घुस आए थे और इजरायली खिलाडिय़ों की नृशंस हत्या कर दी थी। 1974 में अरब आतंकवादियों ने एक इजरायली स्कूल में 21 बच्चों को जघन्य तरीके से मार डाला था। तब इंदिरा गांधी की सरकार और उसका समर्थन करने वाले माक्र्सपुत्रों ने इन जघन्य घटनाओं की कड़े शब्दों में निंदा करने की बजाए फुसफुसाना पसंद किया। इससे पूर्व दो बार अरब देशों ने समस्त यहूदियों को समुद्र में फेंक देने की घोषणा के साथ इजरायल पर हमला किया, किंतु दिल्ली स्थित कांग्रेसी सरकार ने इस पर विरोध जताने की बजाए उनका उत्साहवर्धन करना पसंद किया। इजरायल अकेले दम पर इन तेरह देशों के हमलों को खम ठोकर झेलता रहा और अंतत: उन्हें परास्त करने में सफल भी रहा।
इजरायल के सख्त प्रतिरोधात्मक कार्रवाइयों के कारण एक समय ऐसा भी आया, जब इजरायल की सेना कैरो के द्वार तक पहुंच गई। अमेरिका और सोवियत संघ को सामने आना पड़ा और तेलअवीब को पैर पीछे खींचने के लिए मनाना पड़ा। यह 1979 में घटित हुआ था, जब मिस्र ने इजरायल पर हमला बोल दिया था। इतिहास में इसे 'यूम किपूर युद्धÓ के नाम से जाना जाता है। हालांकि यूम किपूर युद्ध का एक फायदा यह रहा कि मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति अनवर सादात को यह भलीभांति समझ में आ गया कि इजरायल से भिडऩा व्यर्थ है। इसी समझदारी के कारण उसने इजरायल के सहअस्तित्व को स्वीकारते हुए उससे संधि कर ली। किंतु अरब आतंकवादियों ने जल्दी ही अनवर सादात को मौत के घाट उतार डाला। इजरायल जन्म से ही इस्लामी आतंकवाद से जूझ रहा है। उस इस्लामी आतंकवाद से त्रस्त होने के कारण स्वाभाविक रुप से भारत को इजरायल से काफी मदद मिल सकती है, जिसकी संभावनाओं पर काम अटलजी की सरकार के समय गंभीरतापूर्वक प्रारंभ किया गया था।
सितंबर, 2003 में इजरायल के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री एरियल शेरोन दो दिवसीय राजकीय दौरे पर भारत आए थे। तब माक्र्सवादियों और कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों ने भारी हंगामा खड़ा किया था। शहर दर शहर रैलियां निकालकर इजरायल से नाता तोडऩे और फिलीस्तीन से जुडऩे के बैनर लहराए गए। किंतु अटलजी ने तुष्टिकरण की जगह राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी। उस अवसर पर भारत और इजरायल के बीच सहयोग और मित्रता पर 'दिल्ली घोषणाÓ जारी किया गया था। जसवंत सिंहजी के दौरे के दौरान रणनीतिगत मामलों में समय-समय पर विचार-विमर्श का पहले ही निर्णय लिया गया था। इसलिए यरुशलम और नई दिल्ली के बीच आतंकवाद को लेकर एक दृढ़ संकल्प पैदा करना संभवत: मोदी सरकार की भी प्राथमिकता हो सकती है। प्रधानमंत्री मोदी से पूर्व पिछले साल गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी सीमा सुरक्षा का अध्ययन करने इजरायल गए थे।
इजरायल क्षेत्रफल की दृष्टि से भले ही छोटा देश है, किंतु अपने प्रखर राष्ट्रवाद के कारण आज दुनिया में एक सशक्त देश के रूप में अपनी पहचान रखता है। भारत के साथ उसके विशिष्ट संबंध हैं और दुनिया में दूसरा कोई अन्य देश नहीं है, जिसके साथ भारत राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को साझा करता है। दोनों देश आण्विक सैन्य तकनीक साझा करते हैं। भारत इजरायली सैन्य उपकरणों का दुनिया में सबसे बड़ा खरीदार है। कारगिल युद्ध के समय पाकिस्तानी बंकरों को ध्वस्त करने के लिए इजरायल ने गाइडेड मिसाइलों के साथ दर्जन भर सैन्य विशेषज्ञ भी भेजे थे। इजरायल ने पाकिस्तान को 'शत्रु राष्ट्रÓ घोषित कर रखा है और पाकिस्तान के साथ संबंध रखने वाले अपने नागरिकों के साथ कठोरता से निबटता है। भारत के प्रति इतना मित्रवत व्यवहार रखने के बावजूद कांग्रेस नीत सरकारें अरब देशों और स्थानीय कट्टरपंथी मुसलमानों को तुष्ट करने के लिए इजरायल के साथ प्रगाढ़ संबंध स्थापित करने से परहेज करती रही हैं। भारत के प्रति पाकिस्तान का रवैया जगजाहिर है। फिलीस्तीन के नाम पर स्थानीय मुस्लिमों के भयादोहन का काम माक्र्सवादियों ने लंबे समय तक किया। इस बात में दो राय नहीं कि भारत के आम मुस्लिम के लिए फिलीस्तीन या दुनिया में खिलाफत लाने का दावा करने वाले आईएस के प्रति कोई लगाव नहीं है। स्वयं सुन्नी अरब देश भी इजरायल को सैन्य सहयोगी देश के रूप में देख रहे हैं। ऐसे में इजरायल के साथ संबंधों को अधिक मजबूत कर प्रधानमंत्री मोदी इस्लामी आतंकवाद के सफाए में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं, जिस पर दुनिया के अन्य संपन्न राष्ट्रों की भी आशा टिकी है।

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