अग्रलेख

भारत-अफगानिस्तान एक-दूसरे की जरूरत
- डॉ. रहीस सिंह
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी भारत की यात्रा पर ऐसे समय में आए जब अफगानिस्तान में अस्थिरता की हल्की सी हलचल दिख रही है। अफगानिस्तान फिर से आतंकवाद से घिरता हुआ दिख रहा है और दुनिया के तमाम देश व संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्थाएं इस स्थिति पर चिंता और चेतावनी की मनोदशा का इजहार करते हुए दिख रही हैं। अफगानिस्तान के दक्षिण सूबे जाबोल से लेकर कुंदूज और जलालाबाद तक इस्लामी स्टेट (आईएस), इस्लामी मूवमेंट उजबेकिस्तान (आईएमयू) और तालिबान अपना दबदबा बढ़ाने में कामयाब होते प्रतीत हो रहे हैं और इसे अब एशिया प्रशांत क्षेत्र के देशों पर खतरे के रूप में स्वीकृति भी मिलने लगी है इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि राष्ट्रपति अशरफ गनी भारत किस उम्मीद को लेकर आए होंगे। यद्यपि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें यह कहकर आश्वस्त किया है कि भारत और अफगानिस्तान के दिल सालों से जुड़े हैं, इसलिए भारत अफगानिस्तान का दर्द समझता है। फिर भी यहां सवाल यह उठता है कि क्या भारत अफगानिस्तान के साथ साझेदारी से उपजने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार है और अफगानिस्तान इस बात के लिए भारत को आश्वस्त कर सकता है कि वह अपने 'अविभाज्य भाई' (पाकिस्तान) के मुकाबले भारत को तरजीह देने सम्बंधी मनोविज्ञान का निर्माण कर चुका है?
कभी दुनिया का चौराहा रही अफगानिस्तान की जमीन, पिछले दो दशक में महाशक्तियों के ग्रेट गेम का इस कदर शिकार बनी कि अब वह ऐसे दलदल में तब्दील हो गयी जिससे अफगान निकलना चाहता है। दक्षिण एशिया के देशों और विशेषकर भारत के लिए भी जरूरी है कि अफगानिस्तान उस दलदल से बाहर आए। लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा है-पाकिस्तान और आतंकवाद। अफगान नेतृत्व पाकिस्तान के प्रति भक्ति प्रकट करने के लिए विवश है क्योंकि उसे भली भांति मालूम है कि यदि वह पाकिस्तान से दूर जाएगा तो पाकिस्तान का वर्चस्व कमजोर होगा लेकिन इसे बनाए रखने के लिए पाकिस्तान किसी भी हद तक जा सकता है। इसी वजह से अफगान नेतृत्व भारत के प्रति मैत्री सम्बंधों का इजहार मुक्त मन से नहीं कर पाता। करजई से लेकर अशरफ गनी तक ने पाकिस्तान को कुछ ज्यादा ही तरजीह दे डाली। अशरफ ने भी अपने सुरक्षा बलों के प्रशिक्षण का कुछ दायित्व पाकिस्तान को सौंपा। यह उनकी बड़ी गलतियों में से एक है। हालांकि अशरफ गनी आतंकवाद से लडऩा चाहते हैं और उन्हें यह भली भांति मालूम है कि भारत के सहयोग के बिना वे उससे नहीं निपट सकते। यही कारण है कि अपने तीन दिवसीय दौरे पर नई दिल्ली पहुंचे अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने सबसे पहले आतंकवाद की कठोर शब्दों में निंदा की। उनका कहना था कि हम अफगानिस्तान को आतंकवाद की कब्रगाह बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हमारी प्रतिबद्धता को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए और अपने अभियान में हम विफल नहीं होंगे। उन्होंने स्पष्ट किया कि अच्छे व बुरे आतंकवादियों में कोई फर्क नहीं किया जाना चाहिए। इस बीमारी से लडऩे के लिए संयुक्त क्षेत्रीय व वैश्विक दृष्टिकोण का आह्वान भी किया। उल्लेखनीय है कि अमेरिका व पाकिस्तान लम्बे समय से आतंकवादियों का अच्छे व बुरे में विभाजन कर उन्हें अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखने की वकालत कर अपने-अपने हित साधने की कोशिश कर रहे हैं जिसे भारत खारिज करता रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गनी के आह्वान का समर्थन किया और उन्हें इस बात से आश्वस्त कराया कि भारत अफगानिस्तान के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार है। उन्होंने दक्षिण एशिया में अफगास्तिान को संपर्क का केंद्र बनाने के गनी के दृष्टिकोण का भी समर्थन किया।
दरअसल करजई शासन में अफगानिस्तान भारत की अपेक्षा पाकिस्तान की तरफ थोड़ा ज्यादा खिसक गया था। वे पाकिस्तान के साथ एकता का विशाल बीज बोने की चेष्टा इस कदर कर बैठे कि उसे अपना 'अविभाज्य भाईÓ घोषित कर दिया। दरअसल पाकिस्तान नहीं चाहता कि अफगानिस्तान भारत की ओर झुके इसलिए यह उसके मन की बात थी। हालांकि करजई को 'रियल पॉलिटिकÓ नेता के रूप में पेश किया गया लेकिन अपने अंतिम फेज तक पहुंचते-पहुंचते वे इससे दूर चले गये। तो क्या अशरफ गनी अफगानिस्तान की 'रियल पॉलिटिकÓ को समझ गये हैं ? अगर ऐसा है तो क्या वे अफगानिस्तानी 'विदेश नीति की नई व्यवस्थाÓ (न्यू ऑर्डर ऑफ अफगानिस्तान फॉरेन पॉलिसी) सुनिश्चित कर पाएंगे ? महत्वपूर्ण बात यह है कि वे स्वयं आतंरिक चुनौतियों में उलझे हुए हैं। उनके सामने सबसे पहली चुनौती यही है कि गनी के घोर प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला अब्दुल्ला प्रमुख कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) की कुर्सी पर काबिज हैं। इससे राजनीतिक अनिश्चितता का वातावरण भी पनपता है। दूसरी चुनौती इसी का अगला सिरा है यानि अफगानिस्तान का मौजूदा राजनीतिक ढांचा बेहद कमजोर है। खास बात तो यह है कि रक्षा मंत्री का महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो अभी तक रिक्त है। इस पद पर राष्ट्रपति गनी ने जनरल मोहम्मद अफजल लादेन की नियुक्त की थी लेकिन उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया क्योंकि उनका मानना था कि उनकी नियुक्ति अफगान सैन्य रैंकों के मध्य 'एकता के अभावÓ का कारण बन सकती है। तीसरी यह कि अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिति बेहद खराब है और आर्थिक पुनरुद्धार की जरूरत है। चौथी चुनौती अफगान कबीलों के मध्य एकता बनाए रखने के साथ-साथ कानून व्यवस्था की चुनौती है क्योंकि अब तक वे अफगान कानून-व्यवस्था को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं और अंतिम चुनौती अफगानिस्तान में चीन-पाकिस्तान के छद्म कूटनीतिक उद्देश्यों सम्बंधी है। वेसे अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी के लिए 'न्यू फॉरेन पॉलिसी आर्डरÓ या नई विदेश नीति की व्यवस्था को सुनिश्चित कर पाना बेहद मुश्किल कार्य होगा। ऐसे में उसे भारत की मदद की दरकार होगी।
अफगानिस्तान इस समय जिस ट्रैप में फंसा हुआ है उसका फायदा पाकिस्तान उठाना चाहेगा। इस समय पाकिस्तान वैसे भी दक्षिण एशिया का एक उभरता हुआ खिलाड़ी बनाया जा रहा है (चीन द्वारा) जिसका डिवीडेंड वह अवश्य ही प्राप्त करना चाहेगा। इसे देखते हुए भारत को अपनी दक्षिण एशियाई नीति का ट्रैक बदलने की जरूरत होगी। भारत को अफगानिस्तान के साथ साझेदारी करने से फिलहाल आर्थिक लाभ हासिल नहीं होंगे लेकिन सामरिक संतुलन के लिहाज से अफगानिस्तान भारत के लिए लाभदायक होगा। यहां कुछ बिंदु महत्वपूर्ण हैं। पहला यह कि यदि भारत अफगानिस्तान को सैनिक मदद देगा पाकिस्तान पोषित तत्वों को अफगानिस्तान में अनिश्चितता और अस्थिरता फैलाना मुश्किल हो जाएगा। दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि पाकिस्तान पूरब और पश्चिम, दोनों ही तरफ से भारतीय घेरे में आ जाएगा। जबकि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई 'बीयर ट्रैपÓ की रणनीति पर फिर से काम करना चाह रही है जिसके जरिए वह अफगानिस्तान तालिबान और आईएस सहित तमाम आतंकी संगठनों के लड़ाकों को भारत की पश्चिमी सीमा तक पहुंचाना चाहती है। चूंकि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के इस्लामाबाद दौरे के बाद पाकिस्तान के हौसले और अधिक बढ़े हैं, इसलिए अब भारत को प्रतितुलक नीति की विशेष आवश्यकता है। एक बात यह भी है कि आतंकवाद को लेकर चीन दोहरा खेल खेल रहा है। चीन यह चाहता है कि तालिबान सहित पाक पोषित आतंकी उसे उइगर अलगावदियों को सहयोग ने दें, इसके बदले में वह पाकिस्तान को भरपूर आर्थिक-सैनिक मदद देगा या यूं कहें कि परोक्ष रूप से पाकिस्तान पोषित आतंकवाद पर भी मौन रहेगा। उधर चीन की अफगानिस्तान में भी अच्छी पैठ है और यह एक बड़े दान दाता के साथ-साथ अफगानिस्तान की संपदा में निवेश करने वाला बड़ा खिलाड़ी भी है। इसलिए चीन का दबाव अफगानिस्तान सरकार पर अधिक होगा और चीन यह कभी नहीं चाहेगा कि भारत अफगानिस्तान में कोई सक्रिय भूमिका निभाए।
