अग्रलेख

पात्रता के लिए योग्यता आवश्यक या जाति
राजनाथ सिंह 'सूर्य'
पंचतंत्र में एक कथा है। एक बैल नदी के बहाव की ओर पानी पी रहा था। ऊपरी भाग में एक भेडिय़ा पानी पीने आया। बैल को देखकर बोला तूने पानी क्या जूठा कर दिया। बैल ने उत्तर दिया राजन ऊपरी भाग में तो आप पानी पी रहे हैं फिर मैं कैसे जूठा कर सकता हूं। भेडिय़ा ने कहा तूने जूठा नहीं किया तो तेरे बाप ने किया होगा। कुछ ऐसा कुतर्की आचरण आजकल भारतीय राजनीति का चलन बन गया है। हमें विरोध करना है भले ही वह तर्कसंगत न हो। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि संसद या विधानमंडल की कार्यवाही का संचालन करने वाले सभापति या अध्यक्ष को बार-बार कार्यवाही स्थगित करनी पड़ती है। संसद या विधान मंडल संवाद के लिए है और निर्णय संख्या के आधार पर होता है। किसी मुद्दे पर सहमति और असहमति होना अस्वाभाविक नहीं है लेकिन मैं जो कह रहा हूं यदि उसे तरजीह नहीं मिलती तो नियम निर्देश को ताक पर रखने के आचरण की चलन बढ़ती जा रही है। संसदीय व्यवस्था लोकतंत्र का आधार है, लोकतंत्र का संचालन संवाद से होता है। इसके लिए नियमावली भी बनाई गई है जिसमें कब कैसे कोई विषय उठाया जा सकता है इसका प्रावधान है। उस नियमावली के अनुसार आजकल शायद ही किसी सदन का संचालन संभव है। एक उदाहरण राज्यसभा का है जिसने यह पुस्तक सर्वसम्मति से स्वीकार की हुई है कि शोक संवेदना के अतिरिक्त प्रश्नकाल स्थगित नहीं किया जायेगा। राज्यसभा के सभापित हामिद अंसारी ने सदन शुरू होते ही प्रश्नकाल स्थगित कर किसी तात्कालिक विषय पर चर्चा की मांग और हंगामे से ऊबकर प्रश्नकाल के पूर्व, शून्यकाल, जिसे हंगामा काल भी कहा जा सकता है लेने का फैसला किया इस उम्मीद के साथ कि एक घंटे में शोर-शराबा निपट जायेगा तथा सदस्य प्रश्नोत्तर में भाग ले सकेंगे। प्रश्नकाल सदन की कार्यवाही का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा इसलिए है क्योंकि उसके द्वारा सरकार की क्रिया-कलाप का खुलासा होता है तथा गतिशीलता भी बढ़ती है। एक-एक प्रश्न का उत्तर तैयार करने में कभी-कभी केंद्र और राज्य के दर्जनों कार्यालयों का योगदान लेना पड़ता है। यही कारण है कि सबसे पहले प्रश्नोत्तर ही होता है। लेकिन आजकल हंगामे का सबसे ज्यादा शिकार प्रश्नकाल ही होता है जो होता ही नहीं है। सभापति के आसन ग्रहण करते ही जो हंगामा शुरू होता है वह प्रश्नकाल के बीत जाने या फिर सदन को स्थगित करने तक बना रहता है।भारत में संवाद की सनातन परम्परा है। प्रारम्भ में हम इसे शास्त्रार्थ कहते थे। अर्थात शास्त्र का क्या अर्थ है उसके अर्थ को समझाने के लिए होने वाले शास्त्रार्थ पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होते थे इसलिए जो तर्क संगत अर्थ होता था उसे सभी स्वीकार कर लेते थे। आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। संसदीय व्यवस्था भी इसी शास्त्रार्थ पर आधारित है। चुनाव के बाद जिसको बहुमत मिलता है वह सरकार बनाता है तथा अपनी सोच समझ और वादे के मुताबिक कानून बनाने या पूर्व कानून में संशोधन का प्रस्ताव करता है। पक्ष और विपक्ष में उसके औचित्य पर तर्क होता है और कभी कभी बहुत कम संख्या बल वाले के तर्क को भी संशोधन के रूप में स्वीकार कर लिया जाता रहा है। लेकिन लगभग दो दशक से जो सत्ता में है वह पक्षपातपूर्ण विधेयक या प्रस्ताव लाता है, अपना वोट बैंक बढ़ाने की उसकी प्राथमिकता रहती है। इसके कारण उसका विरोध होता है। विरोध के तरीके भी नियमों में निर्धारित हैं। मतदान की मांग या फिर सदन से बहिर्गमन विरोध प्रगट करने का तरीका है, तर्क देने के अलावा। इस नीति से किये जाने आचरण में क्षरण होता जा रहा है। विरोध के लिए न तो तर्क दिए जाते हैं, न मतदान की मांग उठती है और न बहिर्गमन होता है। अब प्राथमिकता हो गई है। सभाध्यक्ष के आसन को घेरकर नारेबाजी करने की। सभी विधानमंडलों और संसद में सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाने में बाधा डालना दंडनीय है। यदि किसी सदस्य को अकारण सदन में आने से रोका जाता है तो रोकने वाला दंडित होता है और यदि सकारण रोका है तो समय से सूचित न करने पर भी उसे दंडित किया जा सकता है। प्रेक्षक दीर्घा से पर्चे फेंकना, नारे लगाना भी दंडनीय है। यहां तक कि किसी भी सदस्य द्वारा सदन की कार्य सूची कोई विधेयक आदि फाडऩा भी सदन की अवमानना मानी जाती है और उसे दंडित भी किया जा सकता है क्योंकि उससे कार्यवाही बाधित होती है। लेकिन आजकल न केवल कार्यसूची या विधेयक फाडऩा आम बात हो गई है अपितु नारों की पट्टिका दिखाना नारे लगाना, सभापति के आसन को घेरकर कार्यवाही को बाधित करना संसदीय सक्रियता का प्रमुख आचरण बन गया है। जो सदस्य दर्शक दीर्घा से किसी नारा लगाने वाले को जेल भेज देते हैं वे समूह में सदन के बीच ऐसी नारेबाजी करते हैं कि कार्यवाही स्थगित करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहता।किसी सरकारी निर्णय के खिलाफ सदन के बाहर धरना, प्रदर्शन जेल भरो आंदोलन राजनीतिक चलन है। एक नेता चौधरी चरण सिंह का मत रहा है कि एक निर्वाचन से दूसरे निर्वाचन तक जनता को सरकार की अनीतियों के खिलाफ जागृत करने के लिए सदन में तर्क संगत विरोध और जन जागरण का सहारा लेना चाहिए। वे धरना, अनशन या जेल भरो सत्याग्रह के खिलाफ थे। ऐसे सोच वाले वे शायद अकेले हैं क्योंकि आजकल पकड़े गए लोग सायंकाल तक छोड़ दिए जाते हैं इसलिए इसका चलन भी बढ़ रहा है। राजनीति में औचित्य अनौचित्य की विवेक शून्यता बढ़ रही है, तर्क द्वारा सहमत करने की क्षमता क्षीण हो रही है, इसलिए जिसकी लाठी उसकी भैंस का चलन आम हो गया है। सत्तारूढ़ पक्ष अपनी संख्या बल का इसके लिए प्रयोग करता है तो विपक्ष ऊधम मचाकर। जैसे भेडिय़े ने तूने नहीं तो तेरे बाप ने जूठा किया होगा का तर्क दिया था कुछ वैसा ही तर्क आज की बहस में-यदि वह होती है-तो सुनने को मिलता है। दलों के नेता जिन्हें संयमित आचरण करने के लिए सदस्यों को सचेत करने की जिम्मेदारी निभानी चाहिए वे लोगों को अध्यक्ष पीठ घेरने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, यह क्षरण घातक होता जा रहा है। यह केवल संसद या विधान मंडल तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि समाज में भी महामारी की तरह फैल रहा है। अनेक प्रकरण के अपराध और दुराचरण को संसदीय क्षरण से प्रोत्साहन मिल रहा है। देश की सत्ता लोकसभा में पूर्ण बहुमत के साथ जिस पक्ष ने संभाली है उसने सबका साथ और सबका विकास का आचरण का आश्वासन दिया था। इसका स्वरूप प्रगट होना चाहिए। संभव है इसके कारण विकास की उसकी अपनी अवधारणा में कुछ बाधा पड़े लेकिन इससे लोकतंत्र पर आचरण में गुणात्मकता बढ़ेगी और जब ऐसा होगा तो तर्क संगत बातें भी होंगी, विरोध के लिए विरोध नहीं अपितु सुधार के लिए विरोध या सुझाव आयेंगे जो देश को सम्यक विकास में बाधक बनने वालों को जनसमर्थनविहीन बना देगा। जो आजकल अफवाहों का सहारा लेकर सत्ता को बदनाम करने में लगे हैं उन्हें जनसहमति नहीं मिल सकेगी।
