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जनमानस

शिक्षा के लिए जरूरी बहस

केंद्र सरकार ने पिछले दिनों देश भर के शिक्षा मंत्रियों के साथ आठवीं कक्षा तक बिना परीक्षा के अगली कक्षा में भेजने की नीति के सभी पक्षों पर विचार-विमर्श किया। केंद्र सरकार यदि पास-फेल के लिए न्यूनतम परीक्षा पर विचार कर रही है तो यह अच्छी बात है। वैसे तो बच्चों को पढ़ाई की मुख्यधारा में शामिल करने और उन्हें लगातार प्रोत्साहित करने के लिए प्रयोग बुरा नहीं था लेकिन जब इस प्रयोग की सीमाएं और उसके कुछ दुष्परिणाम सामने आ गए हैं तो एक अच्छे डॉक्टर की तरह इलाज की धारा भी बदलाव मांगती है। शिक्षा मंत्रालय द्वारा बुलाई गई शिक्षा मंत्रियों की इस बैठक में अधिकांश शिक्षकों ने इस प्रणाली पर तुरंत पुनर्विचार की मांग की है। परीक्षा के लिए कुछ न्यूनतम मानदंड बनाने के पीछे मांग यह है कि फेल न करने की नीति से पढऩे-लिखने के स्तर में भारी गिरावट आई है। एनसीईआरटी के अध्ययन अथवा प्रथम संस्था के सर्वेक्षणों से बार-बार यह बात सामने आ रही है कि आठवीं के बच्चे भी अपना नाम और विषयों के नाम सही नहीं लिख पाते। पांचवीं का बच्चा दूसरी कक्षा का गणित का सवाल नहीं कर पा रहा और सातवीं का बच्चा तीसरी कक्षा की किताब भी नहीं पढ़ पा रहा। कारण स्पष्ट है कि जब अगली क्लास में जाने से पहले कोई परीक्षा ही नहीं तो पढऩे-लिखने की समझ आएगी कैसेघ् माना कि सिर्फ परीक्षा लिखने-पढऩे की समझ के लिए अनिवार्य नहीं होती लेकिन जिस देश के स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक ही न हों और यदि हैं भी तो सरकारी शिक्षकों को चुनावए जनगणना या दूसरे कामों में थोप दिया गया हो तो वे बच्चों को पढ़ाएंगे कब और जैसा कि स्पष्ट है देश के अधिकांश गांवों में किसानए मजदूर अपने बच्चों को खुद पढ़ा नहीं सकते इसलिए परीक्षा के नाम पर बच्चों के उत्पीडऩ और तनाव की खामियों को तो दूर करने की जरूरत हैए लेकिन उससे पूर्णतरू मुक्ति से तो शिक्षा व्यवस्था और बिगड़ेगी। पिछले दस वर्ष के आंकड़े इसके गवाह हैं। स्कूलों में नामांकन तो बढ़ा है लेकिन स्तर की गिरावट भयानक कही जा सकती है।
सुरेश बैस, ग्वालियर

Updated : 11 April 2015 12:00 AM GMT
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