अग्रलेख

दर्द है अपनी दुकानें बंद होने का

जयकृष्ण गौड़



जिस तरह से बिहार चुनाव में लालू यादव का राजद, नीतीश का जद (यू) और सोनिया-राहुल की कांग्रेस एकजुट होकर भाजपा का मुकाबला कर रहे हैं, वैचारिक दृष्टि से समीक्षा करें तो एक ओर सेक्यूलरी का उद्घोष करने वाले दल हैं, जिन्होंने हमेशा भाजपा पर साम्प्रदायिकता का आरोप लगाया, इसी प्रकार के आरोप कम्युनिस्ट भी लगाते रहे हैं, कम्युनिस्टों के माक्र्सवादी, माओवादी विचारों को न केवल भारत की जनता ने वरन् दुनिया ने नकार दिया है। सोवियत संघ जब तक अस्तित्व में था, तब तक माक्र्सवादी विचारों को नये-नये तरीकों से प्रस्तुत किया जाता था, माओवादी चीन भी अपने यहां उन्हीं नीतियों का अनुसरण करने के लिए बाध्य है, जिनका माक्र्स या माओ ने पूंजीवादी विचार कहकर विरोध किया था। भारत में जो माक्र्सवादी बचे हैं उनकी राजनीति और प्रभाव प. बंगाल और केरल तक सीमित है। वापमंथी विचार प्रवाह के साथ भारत के भी कई पत्रकार, साहित्यकार जुड़े और इनकी कलम वामपंथी विचारों के पैरोकार की तरह चलती रही। राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इनको भी पुरस्कारों से महिमामंडित किया जाता रहा। कुछ कलाकार भी इस जमात में शामिल हो गये। इनकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति, परम्परा और स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद आदि के विचारों का कभी महत्व नहीं रहा। भारत की माटी से निकले विचारों को उन्होंने साम्प्रदायिक या पाखंड के रूप में प्रस्तुत किया। जब केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस की सरकारें लम्बे समय तक रहीं, तब भी इन बुद्धिजीवियों ने कांग्रेस के दरबारी बनकर यशोगान प्रारंभ किया। पद्मभूषण जैसे पुरस्कारों से भी इन्हें नवाजा गया। करीब छह दशक तक इनकी कलम वामपंथी और सेक्यूलर नीति का घोल मिलाकर प्रस्तुत करती रही। इन्हीं पैरोकारी बुद्धिजीवियों ने दरबारी की तरह इतिहास को भी तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया। यह षड्यंत्र ऐसा था जिससे भावी पीढ़ी इतिहास से कट जाय। आधुनिकता को इस ढंग से प्रस्तुत किया, जिससे नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति, परम्परा और गौरवशाली इतिहास से घृणा होने लगे। इन्हीं बुद्धिजीवियों ने ऐसा वातावरण बनाया, जिससे दुनिया में भारत की छवि जादू-टोना और नंगे भूखे देश की बन गई। भारत के गौरव की हर बात को इन बुद्धिवीरों ने साम्प्रदायिक कहकर प्रस्तुत किया। भारत राष्ट्र का निर्माण १९४७ में हुआ, आर्य बाहर से आये, जो हिन्दू हित की बात करेगा वह घोर साम्प्रदायिक, मजहबी साम्प्रदायिकता उनके लिए सेक्यूलरी का आदर्श हो गया। यह बौद्धिक पाखंड छह सात दशक से चलता रहा। नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद पैरोकारों की इस जमात में खलबली मच गई। जिन्हें साम्प्रदायिक कहा जाता था, जिस नरेन्द्र मोदी को २००२ के गुजरात साम्प्रदायिक दंगों को लेकर घोर साम्प्रदायिक कहा गया। जिनके खिलाफ सुनियोजित ढंग से इन कलम वीरों ने अभियान चलाया, उसे भारत की जनता ने भारत की सरकार सौंप दी। जिन विचारों को साम्प्रदायिक कहकर इनकी कलम अभियान चलाती रही, उन्हीं राष्ट्रवादी विचारों की सरकार के काम काज और नीतियों को ये पसंद कैसे कर सकते हैं? अब इन्हें महिमा मंडित करने के रास्ते बंद हो गये। जिस तरह सिंहासन पर बैठने वाले व्यक्ति को जमीन पर बैठना नहीं सुहाता, वैसे ही इन बुद्धि के ठेकेदारों ने मोदी सरकार और राष्ट्रवादी विचारों के खिलाफ अभियान प्रारंभ किया। विरोध सड़क पर तो कर नहीं सकते क्योंकि जनता के समर्थन से ही लोकतंत्र में कोई विरोध प्रभावी हो सकता है। जनता मोदी-मोदी कह रही है, विदेशों में भी मोदी-मोदी हो रहा है। अंतर्राष्ट्रीय एजेन्सियों ने मोदी को गांधी के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया। ऐसा माहौल इन बुद्धिजीवियों की जमात को कैसे पच सकता? चाहे रोमिला थापर हो या इरफान हबीब हो या मृदुला मुखर्जी हो इनको जो पुरस्कार मिले, उन्हें लौटाना प्रारंभ किया है। अब ऐसे ही वैज्ञानिक कलाकार भी इस जमात में शामिल हो गये हैं। पुष्प मित्र भार्गव ने तो पद्म भूषण पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी है। उन्हें जिस कांग्रेस की सरकार ने पद्मभूषण दिया, उन्हीं की पैरोकारी का पुरस्कार उन्हें दिया गया। कांग्रेस की आदर्श इंदिराजी रही है, उन्होंने विरोध में बोलने और लिखने वालों को जेल में डाल दिया था। सेन्सर से मीडिया के मुँह पर ताला लगा दिया था। आश्चर्य तो यह है कि पुरस्कारों से महिमामंडित नयनतारा, थापर आदि बुद्धिजीवी तो उस समय इंदिरा तानाशाही की जय-जयकार कर रहे थे। उस समय इस जमात के महावीरों ने सेन्सर का भी विरोध नहीं किया। प्रकाशित जानकारी के अनुसार 33 लेखक, साहित्यकार साहित्य एकादमी के पुरस्कार लौटा चुके हैं। बीस ने राज्य एकादमी के पुरस्कार लौटाये हैं। बारह फिल्मकारों ने भी यही रास्ता अपनाया है। १५० वैज्ञानिकों ने संयुक्त बयान जारी कर असहिष्णुता की निन्दा की है। करीब तीन सौ चित्रकारों ने भी इसी प्रकार का बयान जारी किया है। इन सबको दादरी में सहिष्णुता की हत्या दिखाई देती है। इन्हें दर्द यह है कि पाकिस्तान के राजनेता की पुस्तक के भारत (मुंबई) में विमोचन के अवसर पर भारत के बुद्धिवीर सुधीन्द्र कुलकर्णी का मुँह काला कर दिया। इन्हें इसका दर्द नहीं है कि पाकिस्तान के आतंकवादी कश्मीर और भारत के अन्य शहरों में आकर निर्दोषो का खून बहा रहे हैं। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ ने गर्व के साथ कहा है कि ये आतंकवादी हमारे हीरो हैं। जो दुश्मन है, उसे गले लगाओ यही इनकी सहिष्णुता और सेक्यूलरी है। इन्हें न निर्दोषों के खून का दर्द है और न इन्हें उ.प्र. और बिहार आदि में होने वाले साम्प्रदायिक दंगों से विशेष लेना देना है, इन्हें दर्द है दादरी में एक मुस्लिम युवक की हत्या का, इन्हें चिंता है कुलकर्णी का मुंह काला करने की, इनकी वेदना यह है कि केन्द्र में मोदी सरकार है, वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे हैं, इसलिए अब साहित्य एकादमी में संघ के स्वयंसेवकों को स्थान मिलेगा। इनकी हताशा इस बात की है कि राष्ट्रवादी पत्रकार, लेखकों, कलाकारों और साहित्यकारों को अब पुरस्कृत किया जायेगा। यदि बोलचाल की भाषा में कहा जाए तो इनको अपनी दुकानें बंद होने का दु:ख है। इस संदर्भ में जब एक टी.वी. चैनल के द्वारा केन्द्रीय मंत्री नीतिन गडकरी से पूछा गया तो उन्होंने स्पष्ट किया कि हम क्या कांग्रेस विचार के कलाकार को नियुक्त करेंगे। पुरस्कार लौटाने वाले या असहिष्णुता की बात को लेकर बयानबाजी करने वालों की हृदय विदारक वेदना यही है कि उनको महिमा मंडित करने के दरवाजे राष्ट्रवादी सरकार ने बंद कर दिये हैं। जो पुरस्कार लौटा रहे हंै, उनका दायित्व है कि पुरस्कार के साथ जो लाख दो लाख का चेक मिला था, वह राशि भी लौटा दें। जहां तक मोदी सरकार और राष्ट्रवादी विचारों के विरोध का सवाल है? इसका उत्तर यही हो सकता है कि लोकतंत्र में जनता निर्णय करती है कि किन नीतियों की सरकार हो और किस प्रकार के नेतृत्व को चुना जाय। २०१४ के लोकसभा चुनाव में जनता ने हेट मोदी अभियान को ध्वस्त कर दिया। सोनिया, राहुल, लालू, मुलायम आदि सेक्यूलर जमात के तंबू उखड़ गये हैं। इस सच्चाई का ध्यान रखना होगा कि चाहे मुगल, पठान आदि आक्रमणकारी हो, चाहे भारत में औरंगजेब जैसा कू्रर तानाशाह रहा हो लेकिन भारत की जनता न कभी अपनी सांस्कृतिक जड़ से कटी और न हटी। इसी प्रकार माक्र्स और माओ की नीतियों का बवंडर चाहे दुनिया के अन्य देशों में चला हो लेकिन भारत में आकर वह सांस्कृतिक विचार प्रवाह के सामने टिक नहीं सका। कांग्रेस जो एक सम्प्रदाय का वोट पाने के लिए सेक्यूलरी नौटंकी करती रही। जिसने उन वामपंथी साहित्यकारों, लेखकों और पत्रकारों को गले लगाया, उन्हें पुरस्कार दिया, जिन्होंने कांग्रेस के दरबारी बनकर उनकी पैरोकारी की। पहले भी राजा या बादशाह के दरबार में राय भाट, चारण होते थे, उसी जीन के ये सहिष्णुता का ढिंढोरा पीटने वाले शुडो सेक्यूलरी बुद्धिजीवी हैं। इनका बौद्धिक पराक्रम इस बात में है कि पुरस्कार लौटाकर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करना। साहस है तो अपने विचारों की कलम का जौहर दिखाओ, यदि जनता उन्हें स्वीकार करेगी तो फिर उनका अभिनंदन करेगी। घिसे पिटे विचारों का राग अलापना कोई पसंद नहीं करता। हेट मोदी मुहिम की प्रतिक्रिया उलटी भी हो सकती है। अनुपम खेर, एम.जी.अकबर जैसे फिल्मकार, पत्रकार अब मोदी और राष्ट्रवादी विचारों से जुड़ गये हैं। कलम का मुकाबला कलम से करें तो संघर्ष प्रासंगिक होगा। अनुपम खेर ने सवाल किया है कि जब कश्मीर में हिन्दू पंडितों पर अत्याचार हुए। उन्हें मारा गया। लाखों पंडितों को पलायन करना पड़ा, उस समय इन सेक्यूलर बुद्धिजीवियों की न कलम चली और न विरोध किया।
(लेखक-राष्ट्रवादी लेखक और वरिष्ठ पत्रकार)

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