अग्रलेख

कम्युनिस्ट नेपाल और चीन से समझौता

संजीव पांडेय

आप कह सकते हैं कि किसी जमाने का हिंदू नेपाल इस समय धर्मनिरपेक्ष नेपाल कम्युनिस्ट नेपाल एक साथ हो गया है। हिंदू राष्ट्र से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रास्ते के सफर के बाद नेपाल पर कम्युनिस्टों का कब्जा बेशक भारतीय कम्युनिस्टों के लिए राहत भरी खराब है। क्योंकि भारत में हाशिए पर आए कम्युनिस्टों के लिए नेपाल में कम्युनिस्टों का शासन आक्सीजन के समान है। लेकिन नेपाल का पूरी तरह से कम्युनिस्ट होना इस समय भारतीय हितों के खिलाफ जा रहा है। क्योंकि नेपाल कम्युनिस्ट होने के साथ-साथ चीन के पाले में खुलकर जा रहा है। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) की विद्या देवी भंडारी का राष्ट्रपति बनना और लगभग उसी समय पेट्रोलियम आपूर्ति के लिए नेपाल और चीन के बीच समझौता होना भारत को सशंकित करने के लिए काफी है। छात्र जीवन से कम्युनिस्ट रही विद्या देवी भंडारी नेपाल की नई राष्ट्रपति चुनी गई है। इससे पहले कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल के ही केपी शर्मा ओली नेपाल के प्रधानमंत्री चुने गए थे।
विद्या देवी भंडारी के राष्ट्रपति बनने के बाद नेपाल में पहाड़ी लोगों और मैदानी लोगों के बीच संघर्ष तेज हो सकता है। विद्या देवी भंडारी भोजपुर जिले से है। भोजपुर पहाड़ी इलाका है। इस समय नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली भी पहाड़ी है। वैसे तो नेपाल की सत्ता पर शुरू से ही पहाडिय़ों का कब्जा रहा है। इस कारण मधेशियों में एक भय का वातावरण रहा है। विद्या देवी भंडारी से पहले नेपाल के राष्ट्रपति रामबरण यादव थे। वो अब सत्ता से हट चुके हैं। वैसे में एक और पहाड़ी का नेपाल के बड़े पद पर पहुंचने के बाद मधेशियों का सत्ता संघर्ष और तेज होगा। हालांकि ओली ने एक मधेशी विजय कुमार गक्षधर को उप प्रधानमंत्री का पद सौंपा है। लेकिन गक्षधर को ज्यादातर मधेशी अपना नेता नहीं मानते हैं। मधेश इलाके में उनका प्रभाव काफी कम है। वैसे तो नेपाल की सत्ता पर शुरू से ही पहाड़ी ब्राह्मणों और क्षत्रियों का प्रभाव रहा है। लेकिन अब हालत यह है कि धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक नेपाल के दोनों प्रमुख पदों पर पहाड़ी ब्राह्मण कम्युनिस्टों का कब्जा है। विद्या देवी भंडारी भी ब्राह्मण है। जबकि केपी शर्मा ओली भी ब्राह्मण है।
भारत की चिंता अलग है। नेपाल में जो कुछ हो रहा है वो सारा भारत के हितों के खिलाफ है। चिंता की बात है कि सारा कुछ चंद महीनों में हुआ है। वैसे में हमारी विदेश नीति पर सवाल उठने लाजिमी हैं। आखिर नेपाल पूरी तरह से चीन के कब्जे में क्यों जा रहा है। क्या चीन वाकई में नेपाल में इतना प्रभावी हो गया है कि हमारे प्रभाव पर वो भारी है। या हमारी विफलताओं ने चीन को नेपाल पर हावी कर दिया है। एक सवाल यह भी उठ रहा है कि विदेश नीति के निर्धारक सही समय पर देश के नेतृत्व को नेपाल की वस्तुस्थिति और हालात की सही सूचना नहीं दे रहे हैं। क्योंकि हालात तो इस तरह पहले खराब हुए थे। स्वर्गीय राजीव गांधी के कार्यकाल में भी नेपाल से संबंध बिगड़े थे। स्वर्गीय वीपी सिंह के कार्यकाल में भी दोनों मुल्कों के संबंध तनावपूर्ण हो गए थे। लेकिन बाद में हालात सुधरे। नेपाल से संबंध फिर मधुर हुए। क्योंकि दोनों देशों के बीच तमाम राजनैतिक विरोधाभास के बीच दोनों मुल्कों की सांस्कृतिक और धार्मिक समरूपता दोनों को एक करती है।
नेपाल का व्यवहार भारत के लिए अब चिंता का विषय है। सबसे पहले पिछले साल सार्क सम्मेलन के दौरान नेपाल के तीन मंत्रियों ने भारत विरोधी रवैया अपनाया। उन्होंने चीन को सार्क का सदस्य बनाए जाने को लेकर लॉबिंग की। यहीं से पता चल गया था कि चीनी दांव के सामने भारतीय दांव फेल हो रहे हैं। उसके बाद नेपाली संविधान में मधेशियों के हितों पर चोट की गई। जब मधेश आंदोलन शुरू हुआ तो नेपाल ने सारा दोष भारत पर मढ़ दिया। भारत से जरूरी सामानों की आपूर्ति मधेश आंदोलन के कारण प्रभावित हुई तो नेपाल सीधे संयुक्त राष्ट्र में पहुंच गया। नेपाल ने वहां भारत विरोधी बात की। यही नहीं संयुक्त राष्ट्र महासचिव से भी भारत की शिकायत लगा दी। अब चीन से व्यापारिक समझौता कर नेपाल ने भारत को खुली चुनौती ही दे डाली है। इस समझौते से नेपाल ने साफ संकेत दिए हंै कि उसे भारत की परवाह नहीं।
नेपाल ने भारत को चेतावनी देते हुए चीनी सरकारी कंपनी पेट्रो चाइना से समझौता किया है। इस समझौते के तहत चीन नेपाल को 1000 मीट्रिक टन पेट्रोलियम उत्पादों की आपूर्ति करेगा। चीन ने यह भी कहा है कि वह नेपाल को 13 लाख लीटर गैसोलिन की आपूर्ति करेगा। यह भारतीय कूटनीति की पूरी विफलता है। दरअसल जो चीन चाहता था वो हो रहा है। चीन की नेपाल कूटनीति लंबे समय की कूटनीति है। हमारी कूटनीति तात्कालिक होती है, जिसके लंबे समय पर अच्छे परिणाम के बजाए दुष्परिणाम आते हैं। चीन ने नेपाल को लेकर काफी पहले योजना बनायी थी। क्योंकि तिब्बत के साथ लगते इस देश को चीन बफर स्टेट के तौर पर उपयोग में लाना चाहता था। तभी कई साल पहले चीन ने काठमांडू तक रेल लाइन बिछाने की योजना बनायी थी। इससे जहां पड़ोसी भारत पर चीन का दबाव बढ़ाने की योजना है, वहीं तिब्बत को पूरी तरह से सुरक्षित करने की यह चीनी योजना है।
हालांकि नेपाल की अपनी कुछ गलतियां नेपाल को फंसा सकती हैं। मधेशियों के हकों को लंबे समय तक उपेक्षित रखना नेपाल के लिए महंगा पड़ेगा। भारतीय राज्यों में मधेशियों के रोटी बेटी के संबंध पहाड़ी नेपाल हमेशा उन्हें सशंकित होकर देखता है। खासकर माओवादी और कम्युनिस्ट मधेशियों को लेकर हमेशा शंका प्रकट करते है। लेकिन नेपाल अगर लंबे समय तक मधेशियों के हकों को नजर अंदाज करेगा तो यहां स्थिति बांग्लादेश की तरह होगी। किसी जमाने में बंगालियों ने पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाबी मुसलमानों के खिलाफ इसी तरह के भेदभाव के कारण आंदोलन खड़ा कर दिया था। आंदोलन इतना ज्यादा बढ़ा कि एक पृथक राष्ट्र का ही उदय हो गया। नेपाल में सत्ता में बैठे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल के नेताओं को इस बात की समझ होगी कि किसी के संवैधानिक हक मारने के परिणाम बुरे होते है। जनता के जिस संवैधानिक हक के लिए नेपाल के लोकतांत्रिक दल राजशाही के खिलाफ लड़़ रहे थे, कुछ उसी तरह के हक नेपाल में मधेशी जनता मांग रही है। इन मांगों के प्रति उदासीनता नेपाल के हितों के खिलाफ होगी।

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