राम काजु कीन्हें बिनु
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अतुल तारे
मुझे नहीं लगता अशोक जी सिंघल हम सबको छोड़ कर एक अनन्त यात्रा की ओर निकल गए हैं। वे लौटेंगे और उन्हें लौटना ही होगा। यह भी सत्य है कि उन्हें मोक्ष मिलना तय है, पर ''राम काजु कीन्हे बिनु मोहि कहां विश्राम।'' उत्तर रामायण में एक प्रसंग है, वीर लक्ष्मण जब सरयू में जल समाधि लेते हैं तो पीछे-पीछे मर्यादा पुरषोत्तम राम भी अपनी लीला को विराम देते हैं और उनके साथ उनके अनन्य भक्त भी परमधाम को प्राप्त होते हैं। हनुमानजी भी यही इच्छा प्रगट करते हैं, पर राम उन्हें मना करते हैं कारण हनुमान शाश्वत हैं, हर काल में हैं, फिर अशोकजी कैसे स्वयं पूर्ण विश्राम को प्राप्त होंगे। वे यकीनन नहीं गए हैं, वे लौटेंगे अवश्य लौटेंगे, हम सबको उनकी प्रतीक्षा है।
अयोध्या में राम मंदिर, एक भव्य राम मंदिर उनका स्वप्न नहीं था, एक जागृत संकल्प था। हमारे यहां तो कण-कण में राम हैं फिर अयोध्या में जहां पहले से ही सैकड़ों मंदिर हैं एक और मंदिर के निर्माण के लिए इतना संघर्ष, इतना विवाद क्यों? यह कौन सा संकल्प है, यह कौन सा ध्येय है, जिसके लिए अशोकजी को याद किया जाए? आज के बौद्धिक मूर्ख यह सवाल मंदिर आंदोलन के पहले दिन से कर रहे हैं और वे आगे भी करने से बाज नहीं आने वाले। फिर यह संकल्प, फिर यह प्रतिज्ञा क्यूं राष्ट्रभक्त रामभक्तों ने की कि ''रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे। वह कौन सी प्रेरणा, वह कौनसा विचार, वह कौनसी ऊर्जा, वह कौनसा सम्बल देश को इस आंदोलन के चलते मिला। आज जब अशोकजी कुछ अंतराल के लिए हम सबके बीच से अनुपस्थित हैं, हमें विचार करना चाहिए। इतिहास साक्षी है कि मंदिर आंदोलन के ठीक पहले देश मंडल कमीशन की आग में झुलस रहा था। देश का सामाजिक तानाबाना बिखर रहा था। सामाजिक समरसता का कहीं नाम ही नहीं था। देश के मानबिन्दुओं के विषय में कोई बोध नहीं था। अयोध्या में राम, काशी में विश्वनाथ और मथुरा में योगेश्वर कृष्ण की भूमि विदेशी आक्रांताओं की चपेट में थी आज भी है, पर तब इसको लेकर कहीं कोई टीस भी नहीं थी। सोमनाथ के मंदिर से राष्ट्र निर्माण की प्रारंभ हुई यात्रा ठहर गई थी। ऐसे विषम वातावरण में राम भक्त भारत माता के अनन्य उपासक अशोक सिंघल और उनके साथ उनके पीछे सैकड़ों, हजारों, लाखों रामभक्त जयश्रीराम का उद्घोष करते हैं।
राम मंदिर आंदोलन स्वाधीन भारत में स्व के जागरण का पहला एवं सार्थक आंदोलन है। इस आंदोलन का महत्व इराक के तत्कालीन बर्बर शासक सद्दाम हुसैन ने भी पहचाना था। उनका वक्तव्य था मुसलमान नासमझ हैं, एक ढांचे के लिए इस देश के हिन्दुओं को एक सूत्र में बांध लिया। इतिहास पल-पल घटता है, पर करवट दशकों में लेता है। राम मंदिर आंदोलन एक ऐसी ही करवट है, एक ऐसा ही पराक्रम है, जिसने देश की दिशा एवं दशा दशा ही बदल दी। निश्चित रूप से इस परिवर्तन में राष्ट्रवादी शक्तियों की प्रमुख भूमिका है, पर यकीनन इसमें श्री अशोक सिंघल की भूमिका अहम है, वंदनीय है। आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, निश्चित रूप से उनकी अनुपस्थिति एक ऐसा शून्य निर्मित करती है जिसको भरना असंभव सा ही लगता है। खासकर इस समय उनकी आवश्यकता और अधिक महसूस हो रही है। कारण देश फिर करवट ले रहा है। विश्व गगन में माँ भारती की जय का जयघोष सुनाई देने लगा है। पर ठीक इसी समय विधर्मी ताकतें भी अपनी छल एवं माया से भ्रम का वातावरण निर्मित कर रही हंै। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक नापाक षड्यंत्र रचा जा रहा है ताकि भारत टूट कर बिखर जाए, ऐसे प्रसंग में देश को अशोक सिंघल की और आवश्यकता थी। मुझे लगता है कि वे भी यह समझ रहे थे, अनुभव कर रहे थे। पर भौतिक शरीर की एक सीमा होती है। उन्हें याद आती होगी 1981 में मीनाक्षीपुरम की घटना जब दलितों ने सामूहिक मतांतरण किया था। तब उन्होंने संकल्प किया और विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से दो सौ मंदिर बनाकर उसमें दलितों को प्रवेश दिलवाया। उन्हें याद आता होगा 1990 का दशक और मंदिर आंदोलन का ज्वार, वे दृष्टा थे, मनीषी थे, वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जीवनव्रती स्वयंसेवक थे। वे देख रहे थे कि देश को एक बड़े संघर्ष के लिए सज्ज होना है, वे देख रहे थे कि माँ भारती को विश्व को दिशा देनी है और निश्चित रूप से इसके लिए शारीरिक रूप से वे स्वयं को अशक्त पा रहे थे, तो एक आदर्श स्वयंसेवक की तरह अपनी नई भूमिका के लिए उन्होंने अंतराल लिया और वे आएंगे क्योंकि हनुमान को मोक्ष नहीं है वे कलियुग की संजीवनी हैं, उन्हें आना ही है। हमारे लिए यह कर्तव्य अवश्य वह छोड़ गए हैं कि उनके बताए पाथेय पर हम और परिपक्वता से, और सावधानी से, और ऊर्जा से चले ताकि जब वे आएं उनकी पारखी नजर में कोई कमी उन्हें दिखाई न दे। आप आ रहे हैं न इसलिए अंतिम प्रणाम के स्थान पर पुन: आर्शीर्वाद की प्रतीक्षा में