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जनमानस

वैचारिक प्रदूषण की संक्रामकता


अकबर को राष्ट्रपिता मानने वालों और अब कर्नाटक सरकार द्वारा बर्बर शासक टीपू सुल्तान की 266 वीं जयंती मनाना वैचारिक प्रदूषण की संक्रामकता नहीं तो और क्या है? बिहार चुनाव में मुस्लिम वोटों को अपने पाले में करने की महागठबंधनी सफलता के बाद कांग्रेस ने अपने मुस्लिम तुष्टिकरण के खतरनाक साधन को चमकाने का निर्णय ले लिया है। नीतीश कुमार भावी प्रधानमंत्री के दावेदार माने जाने लगे हैं तो वहीं बुद्धिजीवी व कलमकारों के लिए दिल्ली के बाद बिहार की असफलता में गैर भाजपावाद के नारे को उछालने का तंत्र-मंत्र मिल चुका है। लोकतंत्र की स्वस्थ परिभाषा में बिहार के जनमत को देखने-दिखाने व सोचने की शक्ति तो जैसे अब नष्ट ही हो चुकी हो। प्रधानमंत्री मोदी के लिए संघ से दूरी बनाने के पाठ सुझाये जा रहे हैं। एक तरफ संघ को भाजपा का मातृ संगठन माना जाता है और दूसरी तरफ ऐसी असंभव दलील दी जाती है जिसके अनुसार हिन्दू आस्थाओं को दफन कर देना ही राष्ट्र के नेतृत्व की परम् आवश्यकता है। ऐतिहासिक बर्बरता और आधुनिक आतंकवाद के संग कट्टरता का महिमामंडन स्वस्थ राजनीति बतायी जा रही है जबकि आरक्षण की समीक्षा का परमावश्यक कार्य व्यर्थ का विषय निरूपित किया जा रहा है। ऐसे वैचारिक प्रदूषण के संक्रमण में देश की विविधता व धर्मनिरपेक्षता का दुरूपयोग तमाम विपक्षी दलों के लिए आसान मुद्दा बन चुका है। विहिप कार्यकर्ता की मौत बर्बर शासक टीपू सुल्तान की जयंती उत्सव की बर्बरता साबित हुयी पर ऐसी मौत पर संवेदनशील स्वरों का उभरना तो नामुमकिन ही है, प्रशांत पुजारी की हत्या की तरह विहिप कार्यकर्ता की मौत कर्नाटक की कांग्रेस सरकार के लिए कैसी भी जिम्मेदारी का विषय नहीं है क्योंकि यहाँ लेखक कलबुर्गी की हत्या की जिम्मेदारी भी प्रधानमंत्री मोदी की मानी गयी थी। ऐसे वैचारिक प्रदूषण की उफान अब पूरे देश में बिहार की लालू विजय के निहितार्थ में अवश्य ही सिर उठायेगी। कानी अपना टेंट नहीं निहारती की कहावत को चरितार्थ करने वाले पाकिस्तान का हाल देखिये कि वे अपने लोकतंत्र से बेपरवाह हैं और बिहार के सफल-शांतिमय चुनाव में प्रधानमंत्री और भाजपा को नाकारा सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा मार्गदर्शक मंडल ने हार के लिए भाजपा नेतृत्व को जिम्मेदार मानने की स्वाभाविक प्रतिक्रिया दी है परंतु विपक्षी इसे भाजपा के अंदर का बड़ा भूचाल निरूपित कर रहे हैं। प्रधानमंत्री के विदेशी दौरों की लोकप्रियता से घबड़ाने वाली कांग्रेस दौरों को ही अप्रासंगिक सिद्ध करने में लगी है। प्रधानमंत्री मोदी की भाषण शैली को भी लांछित किया जा रहा है उन्हें अपने नेताओं, समर्थक संतों व संत सांसदों पर लगाम लगाने की बात कही जा रही है जबकि इन बेतुके बोलों की तुलना में विरोधी वैचारिक प्रदूषण की संक्रामकता को नसीहत देने की तनिक भी जरुरत नहीं समझी जा रही । मोदी-अमितशाह की जोड़ी भाजपा के लिए रिकॉर्ड बहुमत की तिजोरी साबित हुयी बावजूद इसके इस जोड़ी की टूट में साजिश का सपना देखने वाले वैचारिक प्रदूषण की संक्रामकता के व्याप को बढ़ाने में लगे हैं। बिहार में भी भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ा है परंतु जीत से महफूज रहने की प्रतिक्रिया में गन्दी राजनीति के कलह की आहट में वैचारिक प्रदूषण की संक्रामकता गंभीर चिंता का विषय बनती है।

हरिओम जोशी

Updated : 13 Nov 2015 12:00 AM GMT
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