अग्रलेख

21वीं सदी की दिशा तय करेगी नई दिल्ली
- डॉ. रहीस सिंह
आने वाले कई दिन गहमा-गहमी वाले होंगे क्योंकि भारत गणतंत्र दिवस मनाने के साथ-साथ अमेरिका के साथ सीधा कूटनीतिक संवाद करेगा। इस परस्पर संवाद की प्रक्रिया के साथ ही '21वीं सदी की दिशा-निर्धारक भागीदारीÓ की बुनियाद को मजबूत आधार देने की कोशिश भी होगी। हालांकि कुछेक मुद्दों को छोड़कर अधिकांश पुराने ही होंगे, लेकिन उन्हें नये आयाम देने की कोशिश अवश्य होगी। परन्तु यह तभी संभव होगा कि हमारी कूटनीतिक मेधा ने कितना होमवर्क किया है। क्या हमारी कूटनीतिक मेधा ने इतना होमवर्क किया होगा कि भारत आगे का मैत्री सफर इस आधार पर तय कर सके कि आज अमेरिका को भारत की जरूरत उससे ज्यादा है जितनी कि भारत को अमेरिका की?
नरेन्द्र मोदी जी के सत्ता में आने के समय से ही नहीं बल्कि संभावनाओं के आकार लेने के समय से ही अमेरिका का भारत के प्रति रुख बदलने लगा था। उनके शपथ लेते ही वाशिंगटन ने नई दिल्ली के साथ यथार्थपरक एवं सकारात्मक संदेश के साथ रिश्तों को गति देने का संकेत दे दिया था। इसकी शुरूआत उनकी विजय के लिए बधाई और वाशिंगटन आने के आमंत्रण के साथ हुयी थी। साथ ही राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अर्थपूर्ण ढंग से यह उम्मीद व्यक्त की थी कि 'भारत-अमेरिका कूटनीतिक भागीदारी के असाधारण वायदे को पूरा करने के लिएÓ वे नरेन्द्र मोदी के साथ मिलकर कार्य करेंगे। यही नहीं अमेरिका के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर एक्सटर्नल अफेयर्स जॉन केरी ने भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को बधाई देते हुए भारत-अमेरिका सम्बंधों पर नयी उम्मीद जतायी थी। हालांकि उन्होंने अपने दायित्व से विलग व्यापारिक सम्बंधों पर बात की। यह एक आश्चर्यजनक पक्ष था क्योंकि एक विदेश मंत्री का व्यापार से क्या लेना देना। इससे यह संदेश भी मिला कि अमेरिका भारत के साथ व्यापारिक रिश्तों को अधिक तरजीह देना चाहता है। इसमें कोई बुराई नहीं लेकिन भारत को अपनी वरीयताएं तय करनी होंगी। लेकिन आर्थिक मामलों में रिश्तों की कोई सीमा नहीं होती है क्योंकि इसमें बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) जैसे जटिल मुद्दे भी होते हैं, साथ ही यह दबाव भी होता है कि मेजबान देश अपनी राजकोषीय नीति को दुरुस्त करे और सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाए। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने इतनी अवधि में यह संकेत तो दे ही दिया है कि आर्थिक सुधारों की दिशा में तेजी से बढ़ रही है, इसलिए अमेरिकी निवेशकों को प्रोत्साहित होना चाहिए। हां जीवन रक्षक जेनरिक औषधियों के मामले में आईपीआर तथा आईटी प्राफेशनल्स के वीजा शुल्क के सम्बंध में अभी तमाम पक्ष स्पष्ट होने हैं। इसके लिए जरूरत होगी कि अमेरिका उदार रुख अपनाए।
भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए विदेशी पूंजी की जरूरत है। इस दृष्टिकोण से अमेरिका भारत के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकता है क्योंकि अमेरिका भारत में पांचवां सबसे बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकर्ता है और उसने अप्रैल 2000 से मार्च 2014 के मध्य लगभग 11.92 बिलियन अमेरिकी डॉलर का भारत में संचयी प्रत्यक्ष निवेश किया है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय कम्पनियों ने विगत कुछ वर्षों में इससे कहीं ज्यादा अर्थात 17 बिलियन डॉलर का निवेश अमेरिका में किया है। इस दृष्टि से भी भारत की आवश्यकता अमेरिका नहीं है बल्कि अमेरिका की आवश्यकता भारत बनता दिख रहा है।
भारत के अमेरिका के साथ कूटनीतिक रिश्तों के कुछ प्रमुख आयाम हैं जिनका प्रतिनिधित्व कुछ परम्परागत विषय करते हैं और कुछ नवाचारी व रणनीतिक। परम्परागत दृष्टि से कूटनीतिक संवाद को ही प्रमुख माना जा सकता है। यह विषय जून 2010 से 2014 तक प्रगतिशील ऊर्जा के साथ जारी रहा। विशेष बात तो यह है कि वर्ष 2014 में नई दिल्ली इस तरह के संवाद की गवाह दो बार बनी, जिससे यह संकेत तो मिलता है कि वाशिंगटन नई दिल्ली को कितनी तरजीह दे रहा है। अब ऐसा लगता है कि आने वाले समय में भारत-अमेरिका सम्बंधों में दो मुद्दे अहम होंगे जिनमें से एक तो उत्प्रेरक का काम करेगा, लेकिन हो सकता है कि एक प्रतिरोधक का कार्य करे। रक्षा क्षेत्र सम्भवत: दोनों के बीच सक्रियता को बढ़ाएगा क्योंकि अमेरिका को भारत में बड़ा रक्षा बाजार दिख रहा है। भारत ने इस दिशा में 2005 में ही 'भारत-अमेरिका रक्षा सम्बंधों की नई रूपरेखाÓ पर हस्ताक्षर कर रक्षा व्यापार तथा संयुक्त कार्रवाइयों, कार्मिकों के आदान-प्रदान, तटीय सुरक्षा में सहयोग और सहायता व जल दस्युता के खिलाफ लडऩे हेतु साझेदारी करने पर सहमति जतायी थी। इसका परिणाम यह हुआ कि उच्च स्तरीय सैन्य हार्डवेयर का आयात 10 बिलियन डॉलर को पार कर चुका है। भारत के समक्ष आगे जो चुनौतियां हैं, उन्हें देखते हुए इस मोर्चे पर भारत को अमेरिका की आवश्यकता पड़ेगी। हालांकि न्यूक्ल्यिर डील के फलितार्थों को हासिल करने के मोर्चे पर अभी भी दिक्कतों का सामना करना होगा। इसका कारण यह है कि अमेरिका चाहता है कि भारत 'सिविल न्यूक्लियर डैमेज' कानून को सरल करे। उम्मीद है कि सरकार ऐसा नहीं करेगी अन्यथा यह देश के लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ होगा लेकिन यदि यह यथावत बना रहा तो अमेरिका भारत में इकाइयां लगाने से हिचकेगा। फिर ऐसा लगता है कि ओबामा नई दिल्ली आकर भारत की आवश्यकताओं को समझेंगे और परमाणु परियोजनाओं पर अपने हाथ खोलेंगे।
इन मुद्दों के साथ एक अन्य विषय भी होगा और वह होगा आतंकवाद का, जो इस्लामी स्टेट के रूप में एक बेहद विकृत एवं विस्तृत रूप धारण कर चुका है। चिंताजनक बात यह है कि अधिकांश आतंकी समूह एक-दूसरे से जुड़ चुके हैं। ऐसे में यह संभव है कि दोनों की समझ इस विषय पर एक जैसी बने। हालांकि अमेरिका का पाकिस्तान के प्रति जो रवैया रहता है वह शायद नहीं बदलेगा जबकि भारत पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का ही शिकार है। हालांकि अमेरिका को यह समझ में आ गया है कि आतंकवादी संगठनों को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता क्योंकि उन सबके तार एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। अल-कायदा का यदि तालिबान के साथ सहयोग-संबंध है तो उसके लश्कर-ए-तैयबा से भी गहरे रिश्ते हैं। ऐसा लगता है कि इस्लामिक स्टेट के उभार के बाद से उसे यह ठीक से समझ में आ गया है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई अब वह अकेले या केवल पश्चिमी दुनिया ही नहीं जीत सकती बल्कि एशियाई देशों को भी उसमें शामिल करना होगा और भारत इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा के समय ही अमेरिकी राष्ट्रपति यह बता चुके हैं कि नया एजेंडा सेट करने का समय है, ऐसा जो हमारे नागरिकों के लिए पुख्ता लाभ लेकर आए। यह हमें साझा रूप से व्यापार, निवेश और तकनीक में सहयोग को विस्तार देगा और भारत के विकास के एजेंडे के साथ मधुरता से चलेगा तथा अमेरिका को विकास का वैश्विक इंजन बनाए रखेगा।
इसका तात्पर्य तो यही हुआ कि अमेरिका को अब लगने लगा है कि वह मोदी सरकार के साथ बेहतर कारोबारी साझेदारी कायम कर सकता है जिससे आर्थिक और रणनीतिक, दोनों ही मोर्चों पर बेहतर प्रभाव पड़ेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि अमेरिकी अर्थशास्त्रियों और एजेंसियों को यह भरोसा है कि मोदी काल में भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से ग्रोथ करेगी फलत: अमेरिकी कम्पनियों की लाभ की संभावनाएं बढ़ेंगी। अमेरिका को भारत का साथ केवल इन्हीं मोर्चों पर ही नहीं बल्कि एशिया-प्रशांत में चीन की ताकत को रोकने और अपनी पारम्परिक प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए भी चाहिए होगा। अगर वृहत्तर रणनीति पर ध्यान दिया जाए तो जिस तरह से दुनिया शीतयुद्ध की तरफ बढ़ रही है और यूरोप (विशेषकर यूरो जोन) आर्थिक संकट की तरफ बढ़ रहा है, उससे तो यही लगता है कि अमेरिका को भारत के साथ की बहुत अधिक जरूरत पडऩे वाली है। देखना यह है कि हमारा राजनय इन रणनीतिक पहलुओं को गम्भीरता से देख पाया है या नहीं। फिलहाल चाहे वह कारोबार का क्षेत्र हो, चाहे रणनीति का हो अथवा नवाचार, प्रत्येक क्षेत्र में भारत के पास पर्याप्त पोटेंशियल (संभावित क्षमता) है और वर्तमान नेतृत्व में इसे दुनिया के सामने पेश करने की क्षमता भी है। इससे यह लगता है कि भारत 'सम्बंधों के लाभांश' अपने पक्ष में करने में सफल होगा। कुल मिलाकर सम्भवना यही है कि नई दिल्ली 25 और 26 जनवरी को इस तरह के एजेंडे को भारत के अनुकूल बनाने की रणनीति में सफल होगी और भारत-अमेरिका सम्बंध एक नया आकार ग्रहण करेंगे।
