अग्रलेख

जापान की दोस्ती से चीन सशंकित क्यों?

  • डॉ. रहीस सिंह 

अपनी जापान यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जापान की धरती से भारत के पड़ोसियों सहित दुनिया को जो संदेश दिया और जापान के साथ जिस प्रकार की आर्थिक, राजनीतिक और रणनीतिक साझेदारी की शुरूआत की उससे यह संदेश अवश्य मिला कि भारत की विदेश नीति अब परम्परागत मार्ग से थोड़ा हट रही है। टोक्यो में एक तरफ जहां भारत की आर्थिक तरक्की के लिए नये शिल्पकारों को तलाशने का काम किया गया वहीं दूसरी तरफ 'टू प्लस टू फार्मूले के जरिए विदेश और रक्षा के क्षेत्र में नये आयाम जोड़कर शक्ति आधारित विदेश नीति को आधार दिया गया। हालांकि कुछ विश्लेषकों ने इसे शंका की नजर से देखा है और यह निष्कर्ष निकालने की कोशिश भी की है कि इससे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अशांति के नये तत्वों को हवा मिलेगी। लेकिन क्या वास्तव में इस तरह की संभावनाओं का कोई आधार है?
प्रधानमंत्री मोदी ने टोक्यो में 'निप्पोन काइदानरेन (जापान चैंबर ऑफ कामर्स) अपने भाषण में उन स्थितियों और जरूरतों को स्पष्ट किया जो भारत और जापान को एक साथ लाकर एक नये फलक का निर्माण कर सकती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रधानमंत्री ने यहां पर वही बात दोहरानी चाही जो मई 2014 के कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीपीसी) के आधिकारिक अखबार 'द ग्लोबल टाइम्स' के अंक में शंघाई इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के सामरिक विश्लेषक लियु जोंगई ने अपने एक लेख में लिखी थी। उन्होंने लिखा था कि नरेन्द्र मोदी एक सनातन कारोबारी हैं, इसलिए वे चीन के साथ अच्छे रिश्ते रखेंगे। प्रधानमंत्री ने भी यही कहा कि गुजराती होने के नाते कॉमर्स मेरे खून में है, पैसा मेरे खून में है, इसलिए मेरे लिए इसे समझना आसान है। इसके बाद शिखर वार्ता की परिणिति जिस संयुक्त वक्तव्य में हुयी, उसके समस्त बिंदु यही बताते हैं कि यदि सही समय पर उन बिंदुओं पर अमल हो सका तो भारतीय अर्थव्यवस्था की तस्वीर अवश्य बदलेगी। लेकिन विकास की इस नयी साझेदारी से चीन सशंकित क्यों है, जबकि भारत तो शक्ति संतुलन के सिद्धांत को मानता है। हालांकि चीन को भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वह बात नागवार गुजरी हो जो उन्होंने चीन के विस्तारवादी रवैये की ओर इशारा करते हुए कही। लेकिन चीन पर यह आरोप दबे हुए स्वरों में लगता ही रहता है। प्रधानमंत्री ने तो जापान की उस चिंता को, जो हिन्द महासागर से लेकर प्रशांत महासागर या दक्षिण चीन सागर तक में चीन की हरकतों की वजह से उपज रही है, व्यक्त किया था।
दरअसल न केवल जापान के साथ भारत के बेहतर सम्बंधों को बल्कि पूर्वी एशिया (विशेषकर वियतनाम के साथ) के साथ भी भारत के सम्बंधों को 'चीन को घेरने की रणनीति का हिस्सा मानता है। जबकि स्थिति इसके ठीक उलट है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन इस बार प्रतिक्रिया देने के मामले में अपने परम्परागत रवैये से भिन्न दिखा। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा की सफलता को देखकर वह चिंतित तो दिखा लेकिन उसने भारत के प्रति रक्षात्मक और नरम रुख अपनाना ज्यादा बेहतर समझा। ऐसा पहली बार हुआ है जब भारत के आक्रामक रुख पर चीन ने काफी सधी हुई प्रतिक्रिया दी है। चूंकि यह उसके मनोविज्ञान के अनुकूल नहीं है इसलिए यह देखना जरूरी होगा कि क्या चीन का यह व्यवहार उसके बदलते चरित्र का परिचायक है या फिर कृत्रिमता का? यह वही चीन मीडिया है जो पहले भारत की जापान और लुक ईस्ट नीति को चीन को घेरने सम्बंधी भारतीय रणनीति का हिस्सा बताता था लेकिन अब यह मान रहा है कि जापान के करीब जाने से भी चीन के साथ भारत से रिश्तों में कोई तनाव पैदा नहीं होगा। दरअसल 1 सितम्बर को प्रधानमंत्री मोदी ने एक कार्यक्रम के दौरान किसी देश का नाम लिए बिना ही विस्तारवादी नीति की आलोचना की थी। उन्होंने कहा था, 'हमें चारों ओर 18वीं सदी की विस्तारवाद की स्थिति नजर आती है। कोई किसी के समुद्र में घुस रहा है। कोई सीमा का अतिक्रमण कर रहा है। इससे किसी का भला नहीं हो सकता। स्पष्ट रूप से प्रधानमंत्री के निशाने पर चीन ही था और चीन इससे भली भांति वाकिफ भी है लेकिन इसके बावजूद भी चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता किन गांग ने कहा कि मोदी किस संदर्भ में टिप्पणी कर रहे हैं, इसकी जानकारी उन्हें नहीं है। भारत-चीन समान विकास के सामरिक साझीदार हैं। दोनों अच्छे पड़ोसी हैं। दोनों देश दुनिया में शांति चाहते हैं।
यह बात तो स्पष्ट है कि चीन न तो शांतिवादी है और न ही भारत का एक अच्छा पड़ोसी, लेकिन इसके बावजूद वह ऐसा प्रदर्शन कर रहा है, तो यह मान लेना चाहिए कि भारत की जापान के साथ रक्षात्मक साझेदारी बेहद सफल रही। लेकिन ऐसा लगता है कि चीन भारत की बदलती वैदेशिक और रक्षात्मक रणनीति को अभी गम्भीरता से परखना चाहता है। अभी चीन के राष्ट्रपति भारत आने वाले हैं और भारत अमेरिकी यात्रा कर बराक ओबामा से मिलकर एक नयी साझेदारी शुरू करने वाला है। चीन इस भारत-जापान-अमेरिका त्रिकोण के आक्रामक और रक्षात्मक आयामों को देखना चाहता है। वह यह भी जानना चाहता है कि अमेरिका की इसमें भूमिका कितनी और किस प्रकार की रहेगी। इसके बाद ही वह कोई निर्णय ले पाएगा। इधर वाशिंगटन ने भारत-जापान रणनीतिक साझीदारी का स्वागत किया है। विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता जेन साकी ने कहा, 'अमेरिका भारत के एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपने पड़ोसियों के साथ गठजोड़ और सहयोग बढ़ाने का समर्थन करता है। हम भारत और जापान के साथ त्रिपक्षीय वार्ता और अन्य गतिविधियों के जरिए ऐसे गठजोड़ का सक्रियता से समर्थन करते हैं और उम्मीद है कि हमारा त्रिपक्षीय सहयोग और मजबूत होगा।Ó चीन की असल चिंता यही है।
आज की एशिया की जो जरूरतें हैं उन्हें देखते हुए चीन को उन शंकाओं को त्याग देना चाहिए जो भारत-जापान सम्बंधों को चीन विरोध करार दे रहे हों। यद्यपि हिन्द महासागर में अमेरिकी वर्चस्व बढऩे से चीन का परेशान होना स्वाभाविक है क्योंकि चीन की महत्वाकांक्षाएं असीमित हैं और भारत-जापान-अमेरिका त्रिकोण उन पर विराम लगा सकता है। हालांकि एशिया और एशिया-प्रशांत में उसका टकराव मूलत: भारत और जापान के साथ है। जापान को देखकर इतिहास के उन पन्नों पर पहुंच जाता है जो उसे प्रतिक्रियावादी बनाता है लेकिन भारत के प्रति उसका नजरिया अहमन्यतावाद का होता है। लेकिन अब वह समय आ गया है कि चीन का भारत के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। वह यदि शांति और सहिष्णुता के साथ भारत और जापान के साथ मिलकर चलता है तो वह भारत व जापान के साथ मिलकर वैश्विक नेतृत्व प्राप्त कर सकता है। वैसे अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भारत की विदेश नीति का नया फ्रेमवर्क तैयार करना चाहिए जिसमें चीन एक शत्रु या षड्यंत्रकारी के रूप में उपस्थित न हो बल्कि एक ऐसे मित्र के रूप में उपस्थित हो जिससे वैश्विक नेतृत्व अब अमेरिका से निकलकर एशिया के हाथ में आ जाएगा। इसलिए चीन से भी यही अपेक्षा की जाती है कि वह भारत जापान दोस्ती से डरे नहीं बल्कि इस रणनीतिक त्रिकोण का हिस्सा बने ताकि एशिया को दुनिया का नेतृत्व करने का अवसर प्राप्त हो। चीनी राजनीतिज्ञों को यह बात भले ही समझ में न आए लेकिन चीनी विशेषज्ञों द्वारा अब यह विचार किया जाने लगा है कि चीन को अगर आगे बढऩा है तो वह भारत और जापान को साथ लेकर चले। चीनी विषेषज्ञों का कहना है कि भारत, जापान और चीन एशिया को नेतृत्व प्रदान करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं बशर्ते कि वे अपनी एकजुटता का परिचय देते हुए अपनी रणनीति तैयार करें। चीनी विशेषज्ञों का कहना है कि आने वाले समय में यूरोपीय संघ की तर्ज पर एक वृहद एशिया के निर्माण के लिए तीनों देशों का नेतृत्व जरूरी है।
बहरहाल भारत-जापान सम्बंध अपने परम्परागत और नवीन आयामों के साथ नयी आवश्यकताओं के अनुरूप बदलाव लाने में समर्थ दिख रहे हैं। लेकिन चीन को स्वयं को बदलना अभी शेष है। अब देखना यह है कि चीन किस सीमा तक अपने मनोविज्ञान को बदलने की कोशिश करता है। वृहद एशिया का निर्माण उसके इसी मनोविज्ञान पर निर्भर करेगा। 

Next Story