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ज्योतिर्गमय

शरीर तो मंदिर है


हमारा सबसे निकटवर्ती सम्बन्धी हमारा शरीर हैं। उसके साथ सद्व्यवहार करना, उसे स्वस्थ और सुरक्षित रखना अत्यावश्यक है। शरीर को नर कहकर उसकी उपेक्षा करना अथवा उसे सजाने-संवारने में सारी शक्ति खर्च कर देना, दोनों ही ढंग अकल्याणकारी हैं। शरीर हमारा सदा सहायक सेवक है. वह चौबीसों घंटे सोते-जागते हमारे लिए काम करता रहता है। वह अपनी सामथ्र्य भर आज्ञा पालन के लिए तत्पर रहता है।
उसकी पांच ज्ञानेन्द्रियां न केवल ज्ञान वृद्धि का दायित्व उठाती हैं, वरन अपने-अपने ढंग से अनेक रसास्वादन भी कराती रहती हैं। इन विशेषताओं के कारण आत्मा उसकी सेवा-साधना पर मुग्ध हो जाती है और अपना सुख ही नहीं, अस्तित्व तक भूल उसी में रम जाती है। यह घनिष्ठता इतनी सघन हो जाती है कि व्यक्ति आत्मा की सत्ता और आवश्यकता तक भूल जाता है और शरीर को अपना ही आपा मानने लगता है।
ऐसे वफादार सेवक को समर्थ, निरोग एवं दीर्घजीवी बनाए रखना प्रत्येक विचारशील का कर्तव्य है। चाहते तो सभी ऐसा ही हैं, पर जो रहन-सहन, आहार-विहार अपनाते हैं, वह विधा ऐसी उल्टी पड़ जाती है कि उसके कारण अपने प्रिय पात्र को अपार हानि उठानी पड़ती है और रोता-कलपता, दुर्बलता से ग्रसित होकर व्यक्ति असमय दम तोड़ देता है। स्वस्थ-समर्थ रहना कठिन नहीं है। प्रकृति के संकेतों का अनुसरण करने भर से यह प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। प्रकृति के संदेश-संकेतों को जब सृष्टि के सभी जीवधारी मोटी बुद्धि होने पर भी समझ लेते हैं तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य जैसा बुद्धिजीवी उन्हें न अपना सके।
प्रकृति के स्वास्थ्य रक्षा के नियमों के लिए गुरुगम्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं। वे सहज समझे और निबाहे जा सकते हैं। उचित-अनुचित का निर्णय करने वाले यंत्र इसी शरीर में लगे हैं, जो तत्काल बता देते हैं कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं। आहार-विहार का ध्यान रखने से स्वास्थ्य रक्षा की समस्या हल हो जाती है. आहार प्रमुख पक्ष है, जिसे स्वास्थ्य अनुशासन का पूर्वार्ध कहा जा सकता है। उत्तरार्ध में विहार आता है, जिसका तात्पर्य है नित्य कर्म, शौच, स्नान, शयन, परिश्रम, संतोष आदि। शरीर रूपी मन्दिर को मनमानी बुरी आदतों के कारण रुग्ण बनाना प्रकृति की दृष्टि में बड़ा अपराध है। उसके फलस्वरूप पीड़ा बेचैनी, अशक्ति, अल्पायु, आर्थिक हानि और तिरस्कार जैसे दंड भोगने पड़ते हैं। 

Updated : 4 Sep 2014 12:00 AM GMT
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