ज्योतिर्गमय

अभिवादन
मानव-जीवन में संस्कारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। व्यक्ति के संस्कार ही उसके सद्विचारों और सद्गुणों के साथ उसे मानव कहलाने का अधिकारी बनाते हैं। शास्त्र-परंपरा के अनुसार सम्यक रूप से किया गया कर्म 'संस्कार कहा जाता है। वेद, श्रुतियां और स्मृतियां मानव-जीवन को सुव्यवस्थित और सुखमय बनाए रखने वाले ज्ञान की अमूल्य निधि है, साथ ही सनातन धर्म की आधारशिला हैं।
सनातन धर्म में अभिवादन-संस्कृति में शिष्टाचार की महती भागीदारी होती है। अभिवादनशीलता सर्वोच्च सात्विक संस्कार के साथ ही भारतीय संस्कृति का जीवंत स्वरूप भी है, जिसमें विनम्रता, आदर, श्रद्धा, शील, सेवा, अनन्यता आदि भाव समाहित होते हैं। सामान्यत: अभिवादन अपने से बड़े और श्रद्धेय के प्रति आदरभाव व्यक्त करने के लिये 'प्रणाम कहा जाता है। भारतीय संस्कृति में बड़े होने का आधार उसकी तप में निष्ठा, विद्या, सदाचार, सद्विचार आदि श्रेष्ठ गुणों की संपन्नता के लिये 'चरण स्पर्श और आशीर्वाद से अनेक दिव्य लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं। 'मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि गुरुजन, वृद्धजन, माता-पिता और श्रेष्ठजन के चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त करने से व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होती है। इन अद्भुत लाभों का वैज्ञानिक आधार व्यक्ति के द्वारा 'अभिवादन की विधि में सुरक्षित है। प्रत्येक मानव देहधारी के शरीर में विभिन्न प्रकार की शक्तियों का समावेश होता है। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में 'निगेटिव और 'पॉजिटिव नाम की दो विद्युत शक्तियां मौजूद रहती हैं। बाएं अंगों में निगेटिव का आधिक्य और दाएं अंगों में पॉजिटिव शक्ति का बाहुल्य विद्यमान रहता है। इन दोनों धाराओं का प्रणाम करने वाले और प्रणम्य के आमने-सामने होने पर पॉजिटिव और निगेटिव सजातीय धाराओं के मिलने से प्रणम्य में प्रवाहित होने वाले विशिष्ट गुण का प्रणामकर्ता में समावेश होने से विद्युत-प्रवाह संचालित हो जाता है। अभिवादन भारतीय संस्कृति का सात्विक संस्कार है। दुनिया के प्रत्येक देश में अभिवादन की अलग विधियां प्रचलन में हैं। हर देश में अभिवादन को शिष्टाचार के अंतर्गत शुमार किया जाता है, लेकिन भारतीय समाज में अभिवादन को कहीं ज्यादा महत्व दिया गया है।
