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ज्योतिर्गमय

एकाग्रता उत्तम मार्ग


चित्त की चंचलता की परीक्षा के लिए ध्यान से ज्यादा उपयोगी कोई दूसरा साधन नहीं। कभी एकांत में ध्यान में बैठो, तो मन इधर-उधर दौडता है। इससे लाभ यह होता है कि मन कहां-कहां गया, यह मालूम होता है। किसी कार्य में रत रहते हैं, तो मन इधर-उधर नहीं दौडता। तब उसकी रुचि पहचान में नहीं आती। मन को परखने का मौका ध्यान में आता है। इस प्रकार दस-बीस बार मन के सारे चलचित्र को लिख लें। यह देखने से पता चलेगा कि मन की विशेष आसक्ति का स्थान कौन सा है। उसे पहचान कर मन को उधर जाने का मौका न दें।
चित्त को शुद्ध किए बिना एकाग्रता नहीं आती। वास्तव में परमात्मा अंदर है, हृदय में। उस पर आवरण है बुद्धि का, हृदय का। जैसे लालटेन के अंदर ज्योति होती है, पर कांच के आवरण पर गंदगी हो, तो अंदर की ज्योति साफ नहीं दिखती। उसी तरह बुद्धि पर गंदगी है, तो अंदर की ज्योति नहीं दिखती। तभी एकाग्रता नहीं आती। चित्तशुद्धि का शास्त्रों में उपाय दिया है, जिसे प्रतिपक्ष भावना कहते हैं। मैंने इसे स्वयं आचरण में लाने की कोशिश की है।
क्रोध की प्रतिपक्ष भावना क्या है? जिस पर क्रोध आया, उसके पास जाकर क्षमा मांगना, जिससे क्रोध मिटे। किसी को मारने की इच्छा हो, तो उसके पास जाएं, प्रेमपूर्वक उसकी मदद करें। इससे द्वेषभावना मिट जाएगी। किसी से अनबन नहीं रहेगी। चित्त में जो दोष था, वह निकल जाएगा। यह मेरा अपना अनुभव है।
शास्त्रकारों ने दूसरा उपाय बताया है। मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा- ये चार भावनाएं हैं। जो सुखी हैं उनके साथ मैत्री, जो दुखी हैं उनके लिए करुणा, किसी ने पुण्यकर्म किया, उसके लिए मुदित होना। इससे सामान्य चित्तशुद्धि होती है। मैंने अपनी नई खोज निकाली है। जिसमें दूसरों के दोष तो देखना ही नहीं, अपने भी नहीं देखना है। दोष तो अनंत होते हैं, फिर भी एक-आध गुण तो होगा ही। इसके तहत मैंने दूसरों के गुण देखे और अपने भी। मैंने देखा, मुझमें कौन-सा गुण है? मुझमें करुणा है, तो उसको बढाते जाना है। अपनी छोटी करुणा से ईश्वर की बडी करुणा तक एक लाइन खींचें। इस बिंदु से उस पहाड तक जाना है। जैसे-जैसे गुण बढेगा, एकाग्रता आती जाएगी।
किसी भी काम में चित्त की एकाग्रता आवश्यक है। चाहे व्यवहार हो या परमार्थ, चित्त की एकाग्रता के बिना सफलता मिलना कठिन है। परंतु यह सधे कैसे? एकाग्रता केवल आसन जमाकर बैठने से प्राप्त नहीं हो सकती। हमारे व्यवहार को शुद्ध होना चाहिए। व्यवहार व्यक्तिगत लाभ के लिए, वासनातृप्ति के लिए अथवा भौतिक चीजों के लिए नहीं करना चाहिए। एकाग्रता में सहायक होती है जीवन की परिमितता। यानी हमारा हर काम नपा-तुला होना चाहिए। गणित का यह नियम हमारी सभी क्रियाओं में आना चाहिए। आहार और निद्रा नपी-तुली होनी चाहिए।
जीवन में नियमन और परिमितता लाएं। खराब चीज न देखें। खराब किताब न पढें। निंदा या स्तुति न सुनें। इंद्रियों को यह भय रहे कि हम अनियमितता बरतेंगे, तो भीतर का मालिक हमें सजा देगा। नियमित आचरण को ही जीवन की परिमितता कहते हैं। एकाग्रता के लिए सारी सृष्टि मंगलमय लगनी चाहिए। यह समदृष्टि है। जब तक यह खयाल दिमाग से नहीं निकलेगा कि रक्षक मैं अकेला हूं, बाकी सब भक्षक हैं, तब तक एकाग्रता नहीं आएगी। समदृष्टि की भावना मन में लाना ही एकाग्रता का उत्तम मार्ग है। 

Updated : 11 July 2014 12:00 AM GMT
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