ज्योतिर्गमय
मित्रता
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता, क्योंकि अकेला रहना एक बहुत बड़ी साधना है। जो लोग समाज या परिवार में रहते हैं वे इसलिए रहते हैं कि उन्हें एक दूसरे की सहायता की आवश्यकता होती है। परिवार का अर्थ ही है माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-बहन का समूह। इन्हीं से परिवार बनता है और कई परिवारों के मेल से समाज बनता है। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से शहर, राज्य और राष्ट्र बनता है। इसलिए जो भी व्यक्ति समाज में रहता है, वह एक-दूसरे से जुड़ा रहता है। मित्रता मनुष्य के जीवन की एक अद्भुत उपलब्धि है। जिस व्यक्ति के मित्रों की जितनी अधिक संख्या होती है, वह उतना बड़ा आदमी होता है। मनुष्य धन से बड़ा नहीं होता, मित्रों और शुभचिंतकों से बड़ा होता है। जो व्यक्ति समाज में जितना अधिक लोकप्रिय होता है उस व्यक्ति को ही लोग आदर और सम्मान की नजर से देखते हैं, लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि गलत लोगों से मित्रता न हो। जो झूठी प्रशंसा करने वाले हों, चाटुकार हों, किसी प्रलोभन में पड़कर मित्रता करना चाहते हों, उनसे दूर रहना चाहिए। मित्र का अर्थ है, जो व्यक्ति हमें सुख-दुख में साथ दे। अगर कोई व्यक्ति सुख में साथ दे और किसी संकट में धोखा दे तो ऐसा व्यक्ति मित्र नहीं शत्रु होता है।
जब मनुष्य किसी संकट में पड़े और उस समय जो सहायता करे, वही सच्चा मित्र है। वे लोग बड़े भाग्यशाली होते हैं, जिन्हें सच्चा मित्र मिल जाता है। आजकल गलत मित्रों की संख्या बढ़ गई है, जो किसी स्वार्थ में पड़कर दोस्ती करते हैं और जब स्वार्थ पूरा हो जाता है तो लात मारकर भाग जाते हैं। इसलिए किसी को मित्र बनाते समय ध्यान रखना चाहिए कि वह व्यक्ति किसी स्वार्थ में पड़कर, कोई लाभ उठाने के लिए मित्रता कर रहा है या सही अर्थ में मित्र बनाना चाहता है। जब तक इसकी पूरी पहचान न हो जाए, तब तक कभी भी किसी नए व्यक्ति से मित्रता नहीं करनी चाहिए और न किसी नए व्यक्ति को अपने मन की बात कहनी चाहिए। सोच-समझकर अगर मित्रता की जाए तो वह मित्रता सफल रहती है। एक बात और ध्यान रखना चाहिए कि मित्रता बराबर वालों में होनी चाहिए। बहुत धनी और निर्धन के बीच मित्रता नहीं होती। दोस्ती और शत्रुता हमेशा बराबर वालों से ही की जाती है।