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ज्योतिर्गमय

वास्तविक ताकत


वर्तमान समाज पुरुष प्रधान है। यद्यपि ऐसा आरोप सदियों से लगा है कि इस पुरुषवादी संसार में स्त्री को समानता का स्थान नहीं मिला। युगों से धर्म और संस्कृति का क्रमिक विकास हुआ। अलग-अलग समय और स्थान के अनुसार इनका उत्थान व पतन होता रहा। स्वरूप कोई भी हो, धर्म का अस्तित्व सदैव से है। धर्म के बगैर पृथ्वी स्थिर नहीं रह सकती। परंपराओं और मान्यताओं ने करवटें बदलीं। सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों ने दिशाएं व दशाएं बदलीं। पुरुष और स्त्री का स्थान पूर्ववत बना रहा। कतिपय अपवादों के अतिरिक्त पुरुष और स्त्री का भेद सुनिश्चित होते हुए भी यह बात किसी रहस्य की तरह समाज का पीछा करती रहती है, लेकिन सनातन काल से स्त्री को शक्ति के रूप में पूजित किया गया। जब कभी इस मर्यादा को भंग किया गया, तब पुरुषत्व पर प्रश्नचिह्न लगा। महाभारत काल में द्रोपदी का प्रसंग सबके सामने है। ईश्वर ने अर्धनारीश्वर की अवधारणा से पुरुषत्व को स्त्री पर आधारित रखा। पुरुष का अस्तित्व स्त्री के बिना है ही नहीं, फिर पुरुषत्व की तो बात ही क्या है। स्त्री ने सदा पुरुष की अर्धागिनी बनने की मर्यादा का निर्वहन किया। पुरुषत्व का एक ही रूपक है कि वह स्त्री को समानता की अवस्था में स्वत: स्वीकार करे। इस रूपक का कोई अन्य चरित्र मान्य नहीं हो सकता। पुरुष और स्त्री में किसका स्थान ऊंचा है, यह प्रश्न ही गलत है।
यदि कोई संभावना की खोज करे, तो पुरुषत्व का उत्तर यही होगा कि स्त्री का स्थान ऊंचा है। इस तथ्य में संदेह खोजने वाले कभी पुरुषत्व के स्वामी नहीं हो सकते। अनेक रूढि़वादी लोग ऐसा सोच सकते हैं कि पुरुष, नारी से श्रेष्ठ है, लेकिन यदि ऐसे लोग धर्मदर्शन और हिंदू धर्म के ज्ञानकांड से संबंधित धर्म-ग्रंथों यानी उपनिषदों का अध्ययन करें तो वहां ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलेगी, जिससे यह साबित होता हो कि पुरुष, नारी से श्रेष्ठ है। सच तो यह है कि पुरुषत्व कभी नहीं मानता कि स्त्री अबला है। वीर पुरुष हर स्त्री को सबला मानता है। जो पुरुष स्वयं खोखला हो, वही स्त्री को कमजोर कहता है। ऐसा व्यक्ति पुरुष कहलाने योग्य नहीं, उसमें पुरुषत्व का सर्वथा अभाव है। स्त्री को हीन समझना पुरुषत्व की हीनता है। स्त्री को सम्मान और आदर देना पुरुषत्व की पहचान है। स्त्रीस्वरूपा शक्ति पुरुषत्व की जननी है।

Updated : 16 Jun 2014 12:00 AM GMT
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