अग्रलेख

वामपंथ का सफाया, कांग्रेस विसर्जन की ओर
- राजनाथ सिंह 'सूर्य'
लोकसभा के चुनाव परिणाम ने देश के राजनीतिक माहौल में व्यापक बदलाव के संकेत दिए हैं। मतदाताओं ने प्रचार से अधिक आचरण को महत्व दिया है। फलत: प्रगतिशीलता या सेक्युलरिज्म का मुखौटा लगाकर सब प्रकार के अनैतिक आचरण करने वालों को उसने नकार दिया है, वहीं आरोपों की भरमार से घिरने वालों को कर्तव्यपरायणता के आधार पर स्वीकार किया है। देश की राजनीति में अवाम की आचरण परीक्षण की मानसिकता से गुणात्मक परिवर्तन की अपेक्षा करनी चाहिए और यह उम्मीद करनी चाहिए कि संप्रदाय जाति अथवा क्षेत्रीयता को मुद्दा बनाकर जो विघटनकारी राजनीति हो रही थी उसका अंत होगा लेकिन क्या ऐसा होगा क्या। एक कहावत है, पुरानी आदत आसानी से नहीं छूटती। नशे की लत छुड़ाने के अनेक विशेषज्ञों के बाजार में उतरने के बावजूद उसमें बढ़ोत्तरी ही हो रही है। चुनाव परिणाम के तत्काल बाद हुए राजनीतिक दलों को आत्ममंथन करना चाहिए लेकिन उन्होंने वही पुराना राग अलापना शुरू कर दिया है। भाजपा से कोई मुसलमान क्यों नहीं जीता? यह प्रश्न स्पष्ट करता है कि मुसलमानों में भयादोहन करने वालों को नरेंद्र मोदी का 'सबका साथ सबका विकास अभी समझ में नहीं आया है। वे उसे समझना नहीं चाहते। भारत एक देश है, उसके सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं और सभी का समान दायित्व भी है। सेक्युलरिज्म का ढोल पीटते रहने वालों के भ्रमजाल को तोडऩे नरेंद्र मोदी का सवा सौ करोड़ भारतीयों की चिंता का महत्व भले ही न समझ में आ रहा हो, लेकिन देश का अवाम अल्पसंख्यक बहुसंख्यक की विघटनकारी अवधारणा-जिसके कारण देश का बंटवारा हुआ-बाहर निकलना चाहता है। न कोई अल्पसंख्यक समुदाय है न बहुसंख्यक सभी भारतीय हैं। जिस प्रकार गुजरात में एक भी मुस्लिम विधायक या मंत्री न होने के बावजूद छह करोड़ गुजरातियों के लिए प्रतिबद्धता का लाभ मुसलमानों को भी मिला है, उसी प्रकार भाजपा के 283 में एक भी मुस्लिम न होने के बावजूद सवा सौ करोड़ के हित की अवधारणा में निहित है। गुजरात के समान देश भर में फैले इस्लाम के अनुयायियों को यह समझने में अभी समय लग सकता है, क्योंकि मोदी की जीत होने पर उन्हें पाकिस्तान भेज दिए जाने का जो प्रचार चुनाव के दौरान किया था, उसके भय से उबरने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा उठाये गए कदमों की अभी शुरूआत होना बाकी है।
इस चुनाव में विकास सबसे बड़ा मुद्दा रहा है। जिन लोगों के भ्रष्टाचार और कुशासन के फलस्वरूप अभूतपूर्व महंगाई से अवाम त्रस्त था, उसे नरेंद्र मोदी के विकास की प्राथमिकता ने ज्यादा प्रभावित इसलिए भी किया क्योंकि उत्तर प्रदेश, बिहार तथा अन्य गरीब राज्यों के लोग बड़ी संख्या में गुजरात में विभिन्न स्थितियों में काम कर रहे हैं। इस निर्वाचन में शहरी क्षेत्र की अपेक्षा ग्रामीण वह भी गरीब वर्ग में नरेंद्र मोदी के लिए अनुकूलता प्रदान करने में इन मजदूरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। नरेंद्र मोदी के लिए उमडऩे वाली भीड़ को उनके एक-एक शब्द पर भरोसा इन्हीं लोगों की अनुभूति के कारण हुआ है। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि इन प्रवासी मजदूरों ने देशभर में नरेंद्र मोदी के ''राजदूतÓÓ का काम किया है। भारतीय जनता पार्टी की सफलता के अनेकानेक कारणों को समालोचक सामने ला रहे हैं। जहां कांग्रेस ने देश के अनेक राज्यों में अपना प्रतिनिधित्व तक खो दिया है और महज 44 सीटें जीत कर विपक्षी दल का दर्जा पाने की औपचारिकता तक खो दी है, वहीं उसके साथी और समर्थक सभी दलों का पूरी तरह से सफाया हो गया है। नेशनल कांफ्रेंस, बहुजन समाजपार्टी, डीएमके को एक भी सीट नहीं मिली, वहीं समाजवादी, राष्ट्रवादी कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल तथा उसकी ओर मुखातिब नीतीश कुमार को धूल चाटनी पड़ी है। सबसे बड़ा राजनीतिक परिवर्तन हुआ है वामपंथ के सफाये से। नारों के ढोंग से अर्धशताब्दी तक भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण बने रहने वाले वामपंथ की समाप्ति एक महत्वपूर्ण घटना है। भविष्य में जो घटित होने वाला है, वह संभवत: कांग्रेस का विसर्जन। मैं कई वर्षों से यह लिख रहा हूं कि जिस कांग्रेस की स्थापना एक विदेशी मूल के व्यक्ति ने की है उसका विसर्जन एक विदेशी मूल के व्यक्ति द्वारा होने जा रहा है। कांग्रेस को सोनिया गांधी के डेढ़ दशक के नेतृत्व ने विसर्जन के कगार पर पहुंचा दिया है। उसके विसर्जन की संभावना इसलिए बढ़ गई है क्योंकि एक परिवार के प्रति निष्ठावान कांग्रेसी उस व्यामोह से बाहर नहीं निकलना चाहते। लोकसभा चुनाव में हार की ''सामूहिक जिम्मेदारी की अभिव्यक्ति इसी का परिणाम है। संभव है कि अगले कुछ दिनों में प्रियंका कांग्रेस के लिए सार्वजनिक भूमिका निभाएं लेकिन परिवारभक्ति से मुक्ति के बिना कांग्रेस का विसर्जन रोक पाना असंभव है। चारण यापन की प्रतिबद्धता से मुक्त हुए बिना कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है।
नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा में विश्वास और उनका विरोध कर रहे राजनीतिक दलों की औकात से संभव है कि विलुप्त होने के भय से कुछ दल एक मंच पर एकत्रित दिखाई पड़ें। लेकिन उनकी मंचीय एकता पिछले एक दशक में जिस प्रकार व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के कारण मंच से नीचे नहीं आ पायी वैसा ही कुछ आगे नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। नरेंद्र मोदी का शासनादेश अपेक्षाओं को पूरा कर सकेगा या नहीं क्योंकि समस्याओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है- इस बार मतभिन्नता हो सकती है, लेकिन देशवासियों में अपने अस्तित्व के प्रति आस्था और विकास के प्रति जो विश्वास पैदा हुआ है, वह किसी भी देश को आगे बढ़ाने के लिए सबसे जरूरी होता है। जहां सेक्युलरिज्म के मुखौटे के पीछे छिपी भ्रष्टता, स्वेच्छाचारिता और लोकतंत्रविहीन आचरण का पर्दाफाश हुआ है वहीं यह अवधारणा बलवती हुई है कि भारत एक देश एकजन की भावना से अभिभूत होगा। सबका साथ सबका विकास इस अवधारणा का आधार बनेगा और जो भ्रमित है या अभी भी जिनका भयादोहन जारी है-अर्थात मुस्लिम समुदाय को इस अवधारणा की समझ वोट बैंक के अंधेरे से बाहर निकाल सकेगी। युवा पीढ़ी जो मोदी व्यामोहित इस तथ्य को अच्छी तरह समझ रही है। जो लोग नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने पर देश खंडित होने का कुप्रचार कर रहे थे, उन्हें उनकी विजयी स्वरूप में एकात्मता के अभ्युदय में अपने भविष्य के लिए भले ही निराशा हो, देश के अवाम को मोदी के कथन पर जो भरोसा है वही देश को उस दिशा में ले जायेगा और भारत का भविष्य उज्ज्वल है की अभिलाषा को साकार करेगा।
