अग्रलेख

एग्जिट पोल और चुनावी माहौल
- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
यह सच है कि कई बार एग्जिट पोल पूरी तरह सही साबित नहीं हुए। यह नकारात्मक पक्ष है। इसके विपरीत कई बार बिल्कुल सटीक भी साबित हुए। यह एग्जिट पोल का सकारात्मक पक्ष है। इस आधार पर इनको नजरन्दाज नहीं किया जा सकता। ये बात अलग है कि इसमें पराजित दिखाए गये पार्टियों के नेता इन्हें खारिज करते हैं। वह चुनाव परिणाम का इंतजार करने को कहते हैं। चुनाव परिणाम आने के बाद इनमें से कई नेता सामने नहीं आते। परिणाम आते हैं, वह गायब हो जाते हैं। वह यह भी स्वीकार नहीं करते कि एग्जिट पोल सही थे।
इस बार सभी एग्जिट पोल सामने आ चुके हैं। सभी में एक समानता है। किसी ने संप्रग सरकार की वापसी नहीं दिखाई है। सभी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बहुमत की भविष्यवाणी की है। सभी का औसत भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी बता रहा है। राजग को स्पष्ट बहुमत दे रहा है। इस औसत के अनुसार भाजपा को 254 तथा राजग को 284, संप्रग को 105 तथा कांग्रेस को 76 तथा अन्य पार्टियों को 139 सीटें मिल रही हैं। आम आदमी पार्टी का शोर था, लेकिन यह दहाई में सिमटी दिखाई गयी। जाहिर है इस एग्जिट पोल ने भाजपा और उसके सहयोगियों को छोड़कर अन्य सभी को निराश किया है। सभी ने इनकी निष्पक्षता पर प्रश्न उठाए हैं। यदि एग्जिट पोल के साथ चुनावी माहौल को जोड़कर देखा जाए तो बड़ी हद तक तस्वीर साफ होती है। क्या इस बात से इन्कार किया जा सकता है कि चुनावी माहौल के केन्द्र में भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी थे। क्या ऐसा नहीं लग रहा था कि आम चुनाव नरेन्द्र मोदी के नाम पर जनमत संग्रह की तरह हो रहा है। यह उन्हें प्रधानमंत्री बनाने या न बनाने का जनमत संग्रह था। उनके मुकाबले में दूसरा कोई नाम नहीं था। कांग्रेस और क्षेत्रीय दल सभी अनिश्चितता में थे। वह मोदी के मुकाबले हेतु कोई नाम नहीं दे सके। इसका परिणाम भी मोदी के प्रचार को बढ़ावा देने वाला साबित हुआ। मोदी के विरोधी नेता भावी प्रधानमंत्री पद हेतु कोई नाम नहीं दे सके। इसलिए इन सभी को यही कहना पड़ा कि मोदी को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने से रोकना है। गौर कीजिए- इनके प्रचार के केन्द्र में मोदी थे। लग रहा था कि ये सभी दल मोदी को रोकने के एकमात्र एजेण्डे पर चुनाव लड़ रहे हैं। इनके पास मोदी का विकल्प नहीं था। कांग्रेस का मुख्य एजेण्डा था कि मोदी प्रधानमंत्री पद के लिये उपयुक्त नहीं हैं। तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा, जद(यू), राजद जैसे क्षेत्रीय दलों का भी यही नजरिया था। सभी का दावा था कि मोदी को प्रधानमंत्री बनने से वह रोक सकते हैं। सभी ने चुनाव के दौरान कहा कि वह प्रधानमंत्री पद के लिये मोदी का समर्थन नहीं करेंगे।
विरोधियों की इस रणनीति ने मोदी को चर्चा के शिखर पर पहुंचा दिया। इसका फायदा मोदी को मिल रहा था। क्योंकि विरोध करने वाला कोई भी दल मोदी का विकल्प पेश नहीं कर रहा था। मनमोहन सिंह तीसरी बार प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे, यह तय हो गया था। लेकिन राहुल गांधी क्या करेंगे, यह बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं था। इस प्रकार कांग्रेस भावी प्रधानमंत्री के मामले में नेतृत्वविहीन नजर आ रही थी। क्षेत्रीय दलों का दावा में यदि शब्द जुड़ा था। यदि वह सबसे बड़े दल बने तो उनके सुप्रीमो प्रधानमंत्री बनेंगे। इस प्रकार इनके खेमे में अनिश्चितता का माहौल था। यदि शब्द उनके आत्मविश्वास की कमजोरी को भी सामने ला रहा था। इस तथ्य को इन्होंने समझने का प्रयास नहीं किया। ये नहीं समझ सके कि देश का माहौल परिवर्तन का है। इसमें मजबूत प्रधानमंत्री सबसे बड़ा मुद्दा है। क्योंकि दस वर्षों से कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने कमजोर व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाए रखा। वह राजनेता नहीं थे। समस्याओं के समाधान में मनमोहन सिंह राजनीतिक स्तर पर कोई पहल करने की स्थिति में नहीं थे। उनका प्रभाव प्रधानमंत्री पद के अनुरूप नहीं था। इसलिए समस्या के समाधान में वह अपने प्रभाव का प्रयोग करने की स्थिति में नहीं थे। इसीलिए वह ईमानदार होने के बाद भी अकूत घोटालों को रोकने में विफल रहे। विदेश नीति में भी उनकी कमजोरी की झलक थी।
ऐसे में परिवर्तन का माहौल बना। कमजोर की जगह मजबूत प्रधानमंत्री बनाने का मुद्दा असरदार हो रहा था। कांग्रेस और क्षेत्रीय दल इस तथ्य को पहचान नहीं सके। दूसरी तरफ भाजपा ने समय रहते इस तथ्य को पहचान लिया था। उसने समय को समझा, समय का ध्यान रखा और नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया।
नरेन्द्र मोदी ने अपनी इस जिम्मेदारी का बखूबी निर्वाह किया। देश के माहौल में मजबूत प्रधानमंत्री का मुद्दा गर्म था। मोदी उसी के अनुरूप अपनी विश्वसनीयता बढ़ा रहे थे, अपना दावा लगातार मजबूत बना रहे थे।
जो एग्जिट पोल पहले गलत साबित हुए, उनमें माहौल को इस ढंग से समाहित नहीं किया गया था। 2004 का एग्जिट पोल गलत साबित हुआ था। इसका कारण था कि एग्जिट पोल करने वाले ने चुनावी माहौल का अध्ययन नहीं किया था। उस समय 'फीलगुडÓ और 'शाइनिंग इण्डियाÓ का दावा बेअसर दिखाई दे रहा था। भाजपा के रणनीतिकारों ने चुनाव के दौरान ही इसकी विफलता स्वीकार कर ली थी। 2009 में भी संप्रग को अनुमान से अधिक और भाजपा को अनुमान से कम सीटें हासिल हुई थीं। उस समय भाजपा अपेक्षा के अनुरूप चुनाव नहीं लड़ सकी थी। जबकि कांग्रेस को मनरेगा और किसानों की ऋणमाफी के चुनावी मुद्दों का लाभ मिल रहा था।
जाहिर है कि एग्जिट पोल की सच्चाई का आकलन चुनावी माहौल के आधार पर किया जा सकता है। ऐसे में इस बार के एग्जिट पोल पर विश्वास किया जा सकता है। क्योंकि इस बार माहौल में नरेन्द्र मोदी शिखर पर थे। चुनावी हवा उन्हीं के इर्द-गिर्द चल रही थी। एग्जिट पोल में उसी का ब्यौरा झलक रहा है।
