अग्रलेख

अब प्रतीक्षा है जनादेश की...
- जयकृष्ण गौड़
यह आलेख बारह मई को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होगा, लोकसभा चुनाव के मतदान का यह अंतिम दौर है। अब तीन दिन तक राजनैतिक पंडित चुनाव के बारे में अपनी भविष्यवाणी और आंकलन करेंगे। सोलह मई को चुनाव परिणाम के साथ सर्वे, समीक्षा और आंकलन का उत्तर मिल जायेगा। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, अमेरिका जो स्वयं को दुनिया का पैरोकार समझता है, उसकी जनसंख्या भारत से एक तिहाई के करीब है। अब सवाल यह है कि यह चुनाव गत चुनावों से अलग क्यों है ? जनसंघ से लेकर भाजपा के राष्ट्रवादी विचार हैं, उन विचारों के अनुरूप नेतृत्व भी रहा, लेकिन जिस नेतृत्व के साथ जनसमर्थन की शक्ति नहीं होती उसको राजनैतिक सफलता नहीं मिली। यह भी सच्चाई है कि जो लोगों का समर्थन प्राप्त कर सकता है उसे ही करिश्माई नेतृत्व माना जाता है।
स्वतंत्रता के पूर्व राजनैतिक गुलामी के खिलाफ वातावरण बना। उस समय भी एक प्रबुद्ध वर्ग ऐसा था जो मानता था कि जिन अंग्रेजों के राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता उनसे टकराकर सफलता नहीं मिल सकती, इसलिए सुधार की दृष्टि प्रयास होना चाहिए, यही उदारवादी विचार प्रवाह रहा, लेकिन लोकमान्य तिलक, सुभाषचन्द्र आदि राष्ट्रवादी नेतृत्व किसी भी उपाय से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे। युवकों ने भी बम धमाकों के द्वारा अंग्रेज सरकार को बुरी तरह भयभीत कर दिया, भगतसिंह, राजगुरू, चन्द्रशेखर आजाद सुखदेव आदि ने स्वतंत्रता की देवी के समक्ष अपने जीवन का बलिदान दे दिया। 1947 में हमें खंडित स्वतंत्रता मिली। दुर्भाग्य से उस समय कांग्रेस का नेतृत्व पं. नेहरू के हाथों में था, जो उदारवादी थे। अंग्रेजों से समझौता करके किसी तरह खंडित स्वतंत्रता के लिए तैयार हो गये।
स्वतंत्रता के बाद संविधान के निर्माण से लेकर लोकतांत्रिक पद्धति विकसित हुई। 1962 में भारत की शक्ति की अग्निपरीक्षा हुई, चीन की दोस्ती पर विश्वास कर हमने राष्ट्रघाती गलती की, युद्ध में पराजय के लिए पं. नेहरू जिम्मेदार थे, इसे जानते हुए भी नेहरू जी और उनकी कांग्रेस को जनता ने इसलिए समर्थन दिया कि अन्य दलों के पास सर्वग्राही नेतृत्व नहीं था। नेहरूजी के बाद लालबहादुर शास्त्री कुछ समय प्रधानमंत्री रहे। 1965 के युद्ध में पाकिस्तान को ऐसी मार मारी कि वह कई दिनों तक उठ नहीं सका। इंदिराजी ने भी विदेश नीति में पं. नेहरू का अनुसरण किया लेकिन अपने विचारों में दृढ़ता होने के कारण उन्होंने 1971 में पाकिस्तान के टुकड़े कर बांग्लादेश को पाकिस्तान के चुंगल से मुक्त करने में सफलता प्राप्त की। लोकतंत्र के इतिहास की इबारत पढऩे के पहले यह ध्यान रखना होगा कि कभी गरीबी हटाओ, कभी इंदिराजी की हत्या से उभरी सहानुभूति लहर के कारण एक ही परिवार शासक बना रहा। हालांकि 1975 में आपातकाल की जंजीरों से लोकतंत्र को जकडऩे वाला भी यही परिवार रहा। जातिवाद, सम्प्रदाय, भ्रष्ट आचरण आदि जितनी विकृतियां राजनीति में हैं वह भी कांग्रेस की देन रही है। राजीव गांधी के बाद उनकी विदेशी पत्नी सोनिया गांधी कांग्रेस की प्रमुख बनी, उनका बेटा राहुल गांधी भी राजनीति मेें सक्रिय रहा। एक पुराना मुहावरा है कि सिखाये पूत कचहरी नहीं चढ़ते। राहुल को राजनीति में स्थापित करने की कोशिश सोनिया गांधी ने की लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश और इन लोकसभा चुनाव में उनकी सभाओं में कुर्सियां खाली दिखाई दी, दूसरी ओर भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी की रैलियों में जो जन सैलाब उमड़ा, उससे यह संकेत तो मिल गये कि राहुल गांधी में नेतृत्व क्षमता का पूरी तरह अभाव है। परिपक्व नेतृत्व अपनी ही सरकार के अध्यादेश को दिल्ली प्रेस क्लब में फाड़कर बचकाना हरकत नहीं करता। राहुल नये विचार और नई प्रकार की राजनीति करना चाहते है। अभी तो राहुल को न देश के इतिहास की जानकारी है और न देश की संस्कृति से उनका सरोकार है। उनकी योग्यता केवल इतनी है कि वे एक राज परिवार के बेटे है। लोकतंत्र में यह योग्यता चल नहीं सकती। भाजपा ने पहले प्रचार अभियान की कमान मोदी को सौंपी और उसके बाद प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दिया। चाहे भाजपा विरोधी इस बात को स्वीकार करें या नहीं करें लेकिन मोदी जो गुजरात के विकास मॉडल को प्रस्तुत करने में सफल रहे, जो २००२ दंगों की अग्नि परीक्षा में डिगे नहीं, देशी और विदेशी मीडिया ने मुस्लिमों का दुश्मन कह कर उन्हें बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन जो दृढ़ता के साथ अपने दायित्व को पूरा करने में डटा रहा, ऐसे नेतृत्व को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर भाजपा ने लोगों के मन का भाव ही व्यक्त किया। उनके नेतृत्व को पूरे देश की जनता स्वीकार करने लगी। इसका प्रमाण इस स्थिति से मिलता है कि चाहे उत्तर, पूर्व के अरूणाचल, असम हो, पंजाब, बंगाल हो या सुदूर दक्षिण के तमिलनाडु, आंध्र, कर्नाटक केरल हो, मोदी की रैलियों में हजारों-लाखों की भीड़ जमा होती थी, इस आधार पर कहा जा सकता है कि मोदी एक प्रभावी राष्ट्रीय नेता के नाते उभरे। अंतर केवल रहा कि पहले नेहरू, इंदिराजी, राजीव जी अर्थात एक परिवार के लोगों का ही राज तिलक होता था, अब एक गरीब पिछड़ी जाति में जन्मा व्यक्ति भारत के राष्ट्रीय नेता के नाते स्थापित है। उनकी बराबरी का कोई नेता अन्य दलों में दिखाई नहीं देता। कांग्रेस में तो बिल्कुल नहीं। कांग्रेस चाहे जो दावा करे लेकिन उसमें नेताओं के अकाल जैसी स्थिति है। जिस दल में नेताओं की कतारें दिखाई देती थी उस स्थान पर बंजर भूमि दिखाई देती है। इस चुनाव की पहली विशेषता यह रही कि भारत का लोकतंत्र एक परिवार के बंधन से मुक्त हो गया।
गत विधानसभा चुनाव भाजपा ने विकास के मुद्दों पर लड़ा। चाहे मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान हों या छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह हों, इन्होंने विकास के नाम पर वोट मांगे। राजस्थान में वसुंधरा राजे के नेतृत्व को इसलिए पसंद किया गया कि उन्होंने गेहलोत सरकार की विकास के संबंध में जो कमियां थी, उन्हें उजागर किया। मप्र और छत्तीसगढ़ में तीसरी बार शिवराज और रमनसिंह को जनता ने शासन करने का अवसर दिया। लोकसभा में भी नरेन्द्र मोदी ने गुजरात मॉडल की चर्चा कर चुनाव को सकारात्मक मुद्दे से जोडऩे की कोशिश की। कांग्रेस ने भी मनरेगा और सूचना के अधिकार की बात कही। यूपीए की मनमोहन सरकार के कार्यकाल में जो गड़बड़ घोटाले हुए उससे जनता त्रस्त हो चुकी थी। इन सब कारणों से कांग्रेस के खिलाफ पूरे देश में माहौल बना। बदलाव की इस लहर को ही मोदी की लहर कहा जाने लगा। अमित शाह तो इसे सुनामी कहते हैं।
नरेन्द्र मोदी वडोदरा और वाराणसी से भाजपा के प्रत्याशी हैं, वडोदरा में 72 प्रतिशत मतदान हुआ है। जब वाराणसी में चुनाव आयोग ने मोदी की रैली और रोड शो पर बंदिश लगाई, इसके बाद भी पूरी वाराणसी मोदी के लिए सड़क पर उतर आई। वहां के निवासियों का मत रहा कि इतना विराट जनसैलाब पहले हमने नहीं देखा था। ये स्थितियां यही संकेत दे रही हैं कि भारत के भविष्य की बागडोर राष्ट्रवादी नेतृत्व के हाथों में होगी। हालांकि राजनैतिक क्षेत्र के लोगों का ध्यान इस बात पर केन्द्रित है कि 272 का आंकड़ा प्राप्त कर कौन केन्द्र के शासन में स्थापित होगा। गठबंधन के बारे में भी समीक्षा हो रही है। यह अनुभव है कि राष्ट्रीय दल का गठबंधन ही स्थिर सरकार दे सकता है। भाजपा और कांग्रेस ही राष्ट्रीय दल हंै, इनमें से कौन सबसे बड़े दल के रूप में उभरता है। इन सब अंदाज का निष्कर्ष 16 मई को सामने आयेगा, चुनाव में जो दृश्य दिखाई दिये उस आधार पर यह तो निश्चित है कि देश के भविष्य के शुभ संकेत मिलेंगे।
(लेखक - राष्ट्रवादी लेखक और वरिष्ठ पत्रकार है)
