अग्रलेख

क्यों छुपाया जा रहा 1962 का सच

  • डॉ. रहीस सिंह 


पिछले दिनों ऑस्ट्रलियाई पत्रकार नेविले मैक्सवेल ने ब्रूक्स-भगत रिपोर्ट से जुड़े करीब 100 पन्नों को अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित कर दिया, जिसने भारत के मीडिया और बौद्धिक तथा कुछ हद तक राजनीतिक जगत में टैक्टोनिक मूवमेंट का काम किया क्योंकि इसके बाद विमर्षात्मक भूचाल सा आ गया। दो चार दिन इस विषय को लेकर खासी-गहमागहमी रही और उसके बाद चुनाव के बुखार का शिकार हो गयी। सवाल यह उठता है कि इतने गम्भीर मुद्दों को इतने कम समय में क्यों ठिकाने लगा दिया जाता है, किसी निष्कर्ष तक क्यों नहीं पहुंचा जाता ? आखिर वह कौन सी वजह है जिसके चलते हमारे यहां देश की सुरक्षा और उसकी अहमियत से जुड़े मुद्दे सामान्य राजनीतिक मसलों के आगे बौने हो जाते हैं? नेविले मैक्सवेल की एक खबर में यह दावा किया गया है कि भारत और चीन के बीच 1962 का युद्ध भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की गलत नीतियों के कारण हुआ था और इसी वजह से भारत को इस युद्ध में हार का सामना भी करना पड़ा। रिपोर्ट के मुताबिक तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की सरकार ने चीन से लगे सीमावर्ती इलाकों में 'फॉरवर्ड पॉलिसी अपना रखी थी। इसके तहत उन इलाकों में सुरक्षा चैकियां बना दी गईं, जिन पर चीन अपना दावा करता था। भारतीय सेना ने इन क्षेत्रों में गश्त भी शुरू कर दी थी। इससे चीन भड़क गया और उसने भारत पर हमला कर दिया। नेविले मैक्सवेल ने अपनी पुस्तक 'इडियाज चाइना वार प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि नेहरू हठी राष्ट्रवादी थे, जिन पर अंधराष्ट्रवादियों का दबाव था। इसलिए उन्होंने चीनियों के साथ उचित सीमा शर्तों पर सीमा-विवाद हल करने की नीति को मानने का इनकार कर दिया। इसके विपरीत 1959 में उन्होंने एक ऐसी आक्रामक नीति (अग्रगामी नीति) अपनायी जिसने चीनियों को अपनी आत्मरक्षा में आक्रमण करने पर विवश कर दिया। हालांकि यहां पर एक सवाल यह उठता है नेविले मैक्सवेल के आरोप को यदि सही माना जाए तो नेहरू दोषी ठहरते हैं। लेकिन यदि उनका यह बात सही है तो फिर नेहरू लापरवाह नहीं हो सकते थे? यानि यह युद्ध और पराजय नेहरू की अग्रगामी नीति का परिणाम थी या फिर उनकी लापरवाही की?
दरअसल भारत की पराजय के लिए भारतीय सेना के दो अफसरों लेफ्टिनेंट जनरल हंडरसन ब्रूक्स और ब्रिगेडियर पीसी भगत को जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। जब यह रिपोर्ट (1963) में आयी तो इसे तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल जेएन चौधरी द्वारा अपने कवर लेटर के साथ रक्षा मंत्रालय को भेज दिया गया। लेकिन तत्कालीन सरकार ने इसे गुप्त सामग्री बता, तिजोरी में बंद कर दिया। इसके जो अंश किसी तरह से प्रकाशित हो गये हैं उनमें कुछ ऐसी बातें सामने आयी हैं जो भारत की तत्कालीन रक्षा व्यवस्था और भारत सरकार के रवैये को लेकर बेहद गम्भीर और हैरतअंगेज हैं। रिपोर्ट के उन अंशों के अनुसार उस समय पूर्वी युद्ध क्षेत्र के जनरल कमांडिंग अफसर लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल थे जो युद्ध के दौरान ही बीमार पड़ गये और फिर वे दिल्ली चले आए। इसके बाद वे दिल्ली में बिस्तर से ही सेना को आदेश देते रहे। वे बीएम कौल ही थे जिन्होंने नेहरू को पत्र लिखकर आग्रह किया था कि वे चीन के खिलाफ अमेरिका से तत्काल मदद मांगें। उल्लेखनीय है कि 8 सितम्बर 1962 को चीन ने मैकमोहन पार कर हमला कर दिया और एक सप्ताह पश्चात नेफा पर आक्रमण कर दिया। 20 अक्टूबर को दोनों ओर से घमासान युद्ध प्रारंभ हो गया और 9 नवम्बर को नेहरू ने अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी को दो पत्र लिखे, जिनमें उन्होंने परिस्थिति को 'संकटग्रस्तÓ बताते हुए व्यापक सैनिक सहायता की माँग की लेकिन 21 नवम्बर को चीनियों ने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी।
इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन सेना के बड़े अफसरों की तैनाती में अनावश्यक हस्तक्षेप किया करते और कौल महोदय उन्हीं की पसंद थे जबकि मेनन नेहरू की। यही नहीं इन्हीं कृष्ण मेनन पर उस समय जीप घोटाले का आरोप लग चुका था जब वे ब्रिटेन में भारत के हाई कमिश्नर थे लेकिन नेहरू ने इसके बाद भी उन्हें भारत का रक्षा मंत्री बनाया था। परिणाम यह हुआ कि इसके बाद उनके द्वारा देश की सुरक्षा सम्बंधित जरूरतों की उपेक्षा की गयी और सेना के बेहतरीन या कुशल अधिकारियों की बजाय अयोग्य अधिकारियों को तरजीह दी गयी थी। इन्हीं खामियों की वजह से भारत-चीन युद्ध में भारत को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। लेकिन इसके बावजूद नेहरू मेनन को रक्षा मंत्री के पद से हटाने के लिए तैयार नहीं थे।
सवाल यह उठता है कि आखिर इसकी वजह क्या थी? अगर मेनन और कौल जैसे लोग इसके लिए उत्तरदायी थे तो फिर उन्हें इसके लिए दण्डित क्यों नहीं किया गया? यही नहीं आज तक किसी भी सरकार ने इस रिपोर्ट को देश के सामने लाने का साहस क्यों नहीं दिखाया? क्या देश के लोगों को यह जानने का अधिकार बिल्कुल नहीं है कि उसका नेतृत्व कैसी और कितनी बड़ी गलतियां कर गया ताकि आगे उनका ध्यान रखा जाए? या फिर इसे इतिहास की अप्रत्याशित आकस्मिक घटनाओं में से एक मानकर भूल जाया जाए? इन प्रश्नों से भी आगे कुछ बातें हैं, जिन पर गौर करने की जरूरत है। सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि आखिर चीन के लड़े गये युद्ध में पराजय हासिल कर लेने के बाद भी जवाहर लाल नेहरू चीन की, सुरक्षा परिषद की सीट के लिए, वकालत क्यों कर रहे थे? वे इसके लिए तर्क यह दे रहे थे कि यदि पश्चिमी देशों द्वारा चीन को अलग-थलग कर दिया गया तो फिर चीन और भी गैर-जिम्मेदार हो जायेगा। नेहरू चीन की हर गतिविधि को नजरअंदाज कर एक सभ्य और जिम्मेदार देश बताने की कोशिश आखिर क्यों करते रहे? एक सच यह भी है कि नेहरू, उनकी सरकार और उनके चहेते सेनाधिकारी आसन्न खतरों का या तो सही आकलन नहीं कर पा रहे थे अथवा उन्हें इन खतरों का आभास ही नहीं था। यदि यह मान लिया जाए कि वे सही आकलन नहीं कर पाए थे, तो फिर इसकी वजह यह थी कि अधिकांश भारतीय राजनयिक और नेता आत्ममुग्ध और सन्तुष्ट थे और उन्हें यह लगता था कि चीन भी भारत जैसा ही देश है यानि सुधारवादी शान्तिप्रिय और परामर्श द्वारा हर समस्या के समाधान के लिए प्रतिबद्ध।
इस सम्बंध में माइकल बे्रशर की टिप्पणी बहुत सही लगती है कि भारत-चीन के बीच राजनयिक संस्कार और शैली के टकराव ने सीमा विवाद को विकट बनाया। नेहरू जी चाऊ एन लाई को सुलझा हुआ, संसदीय प्रणाली में निष्ठा रखने वाला उदारपंथी व मध्यममार्गी समझते थे। पता नहीं चीनी गृह युद्ध व साम्यवादी क्रांति के इतिहास से सुपरिचित होने के बावजूद उन्होंने किस आधार पर ऐसी मान्यता बनाई थी। आज भी इस आधार को जानने की जरूरत है ?
दरअसल नेहरू ने तिब्बत मुद्दे से ही गलती करनी शुरू कर दी थी और कुछ हद तक अपने पड़ोसी देशों को अपनी अकुशल, अनिश्चित और छद्म आदर्शवादी विदेश नीति का संदेश देना भी शुरू कर दिया था। तिब्बत आजादी चाहता था और नेहरू जी ने 1954 में पंचशील के अन्तर्गत सीमा पर बिना किसी प्रकार की गारण्टी के तिब्बत सम्बन्धी चीनी स्थिति को स्वीकार कर लिया। दूसरी गलती दलाई लामा और उनके अनुयाइयों को शरण देने की थी लेकिन जैसा चीन आरोप लगाता है कि भारत ने दलाई लामा को विद्रोह के लिए प्रोत्साहित किया। इसके बाद चीन चाइना पिक्टोरियल में दो बार मानचित्र प्रकाशित कर भारत की भूमि को चीन में दिखाया, लेकिन भारत कड़ा ऐतराज जताने में असमर्थ रहा। भारतीय नेतृत्व ने इस बात की पूरी तरह से अनदेखी की कि माओवादी दर्शन में 'शातिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए कोई जगह नहीं है। भारत ने 1960 में चीन की सांस्कृतिक क्रांति में छुपी हुयी चीनी महत्वाकांक्षाओं को भी जानने की सफल कोशिश नहीं की और न ही यह देखने की कि बांडुंग से बेलग्रेड तक जिस तरह से एशियाई नेतृत्व के रूप में उभर रहा है, चीन उसे किस रूप में ले रहा है।
बहरहाल अब यह पूछने की जरूरत है कि हार के असल कारणों से देश कब अवगत होगा? यह जानने की भी जरूरत है कि भारत की संसद ने 1962 के युद्ध के ठीक बाद भारत की एक-एक इंच जमीन चीन से वापस लेने तक चैन से न बैठने का जो संकल्प सर्वसम्मति से पारित किया था, उसे भूलने की वजह क्या है ?

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