अग्रलेख

सरकार के खिलाफ खतरे की घंटी
- जयकृष्ण गौड़
देश में हुए अभी तक के चुनाव अर्थात छठे चरण के चुनाव के मतदान का प्रतिशत गत २००९ के लोकसभा चुनाव की तुलना में पांच से लेकर दस प्रतिशत बढ़ा है। पिछले चुनावी आंकलन के आधार पर कहा जा सकता है कि दो-चार प्रतिशत के अंतर से सरकार बदल जाती है। अब राजनैतिक पंडित इस बात की समीक्षा करने में लगे हैं कि बढ़ा हुआ मतदान प्रतिशत किसके पक्ष में रहा ? मतदान का बढ़ा प्रतिशत जहां लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है, वहीं स्थापित सरकार के खिलाफ यह बदलाव का भी संकेत है। केन्द्र की सरकार का चुनाव होना है, यूपीए सरकार के विरोध में मतदाताओं ने अधिक मतदान किया या मतदाताओं से की गई अपीलों का असर हुआ, इसका आंकलन ठीक प्रकार से करना कठिन है लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि घोटालेबाजों की कांगे्रसनीत यूपीए सरकार से लोग मुक्ति चाहते हंै, देश की जनता ने बदलाव के लिए अधिक उत्साह, जोश और रोष के साथ मतदान किया है। यह स्थिति भाजपा के विरोध में नहीं, लेकिन कांग्रेस, उसके नेतृत्व और यूपीए सरकार के खिलाफ बनी है।
कांग्रेस की दुर्गति इसलिए हुई है कि उसके पास न करिश्माई नेतृत्व है न संगठन है और न प्रभावी मुद्दे हैं, उसके पास केवल यूपीए सरकार के घोटालों का रिकार्ड है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गत दस वर्षों तक दस जनपथ के बंधक के नाते काम किया है। चाहे कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव पी.सी. पारख की किताब 'क्रूसेडर और कांस्पीटर कोलगेट अंदर टुप्सÓ के अंदर दिये तथ्यों पर विचार करे या प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की द एक्सीडेन्टल प्राइम मिनिस्टर द मेकिंग एण्ड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह के संदर्भ को ध्यान में रखकर कोई निष्कर्ष निकालें, इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि यह मनमोहन सिंह की सरकार की बजाय सोनिया, राहुल की सरकार थी, मनमोहन दस जनपथ के मोहरे मात्र रहे। चाहे प्रधानमंत्री कार्यालय इस बात को नकारने के लिए अपना स्पष्टीकरण दे लेकिन दुनिया में शायद ही इस बात की गिनती प्रधानमंत्री कार्यालय करेगा कि वे कितनी बार बोले। मौनी बाबा की तरह चुप रहने की बजाय कभी-कभी बोले हैं, इसका स्पष्टीकरण चाहे दिया गया हो, लेकिन प्रधानमंत्री के अनिर्णय और घोटालेबाजों को बचाने की स्थिति का स्पष्टीकरण आना चाहिए। ईमानदार प्रधानमंत्री ने बेईमानों को संरक्षण क्यों दिया, नियुक्तियों के आदेश सोनिया गांधी क्यों देती थीं ? दस साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री पद का सबसे अधिक अवमूल्यन क्यों हुआ ? इसका उत्तर मनमोहन सिंह के अलावा सोनिया, राहुल को भी देना होगा। सांसदों एवं राजनेताओं पर भ्रष्टाचार के बारे में जो अध्यादेश तैयार किया गया था, उसे दिल्ली के प्रेस क्लब में फाड़कर राहुल गांधी ने यह बता दिया कि वे सरकार के निर्णय को फाड़ सकते हैं, चाहे मनमोहन सिंह को शर्मसार होना पड़े, लेकिन राहुल गांधी जानते हैं कि वे ही केन्द्र शासन के केन्द्र बिन्दु हैं, वे आदेशों को फाड़ सकते हैं, सरकार की आलोचना कर सकते हैं, केन्द्र सरकार के आदेश को बदल सकते हैं। अपमान को सहन करके भी मनमोहन सिंह चुप रहे। मनमोहन सिंह की पगड़ी के सम्मान की चर्चा करने का औचित्य नहीं है, क्योंकि मनमोहन सिंह की पगड़ी महान गुरूओं के बलिदान की प्रतीक रही है, लेकिन उन्होंने सवा अरब देश के प्रधानमंत्री की न केवल गरिमा का ध्यान रखा बल्कि इस शीर्ष पद के स्वाभिमान को भी समाप्त कर दिया। ऐसा प्रधानमंत्री चाहे अपनी ईमानदारी पर संतोष व्यक्त कर दे, लेकिन घोटालेबाजों को बचाने और उन्हें संरक्षण देने के पाप से वे मुक्त नहीं हो सकते। सोनिया-राहुल भी इस तर्क के आधार पर नहीं बच सकते कि वे क्या करें, सरकार के अधिकार प्रधानमंत्री के हाथों में केन्द्रित रहते हैं। यही कारण है कि तथ्यों के आधार पर सोनिया और राहुल गांधी सकारात्मक या विकास के मुद्दे पर चर्चा करने की बजाय व्यक्तिगत आरोप लगा रहे हैं। यहां तक कि वे गुजरात के विकास की सच्चाई स्वीकार नहीं करते। सभी नेताओं की चरित्रावली को लोग जानते हंै, सोनिया गांधी का पिछला जीवन इटली में बीता, इसलिए वहां के जीवन के बारे में पता लगाना कठिन है लेकिन नरेन्द्र मोदी का जीवन तो खुली किताब जैसा है। सोनिया और राहुल गांधी जब प्रियंका वाड्रा के साथ-साथ पति राबर्ट वाड्रा को भी परिवार का अंग मानते हैं। बहन, बेटी, दामाद से रिश्ते की डोर बंधी रहती है, इसलिए वाड्रा अपने कारोबार में एक लाख से तीन सौ करोड़ की संपत्ति तीन वर्ष में अर्जित कर सकते हैं तो इस पर तो उंगली उठेगी। राजनैतिक प्रभाव से यदि उन्होंने अपना कारोबार दिन दूना और रात चौगुना बढ़ाया है तो इस बारे में सवाल करने का अधिकार सबको है। सरकार के प्रभाव का उपयोग कर कुबेर की सम्पत्ति अर्जित करना व्यक्तिगत मामला नहीं, सार्वजनिक मामला है। सोनिया-राहुल गांधी अपने परिवार की दुहाई देकर अन्य मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाते हैं, लेकिन वाड्रा ने जो जमीनें हरियाणा और अन्य स्थानों मेें खरीदी। लखपति से अरबपति बनने की सच्चाई जानने का अधिकार देश की जनता को है। यदि वाड्रा के मामले को चुनावी मुद्दा बनाया जाता है तो इसे गलत नहीं माना जा सकता। प्रियंका वाड्रा को इस बात का स्पष्टीकरण देना चाहिए कि वाड्रा की सम्पत्ति में एकदम इतनी वृद्धि कैसे हुई। यह मार्मिक अपील सच्चाई को छिपाने की है कि मेरे पति के बारे में आरोप लगाये जा रहे हंै, यदि प्रियंका और उनके पति का केवल शुद्ध व्यावसायिक परिवार होता तो उसपर कोई ध्यान नहीं देता। यदि गलत कारोबार के आरोप से कोई व्यक्ति गिरफ्तार होता है तो यह समाचार भी मीडिया में चार पांच लाइन में प्रकाशित होता चूंकि प्रियंका देश के सबसे अधिक शक्तिशाली राज परिवार की बेटी है। उनकी शादी ऐसे कारोबारी से की है, जिसकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा है। यही कारण है कि राजनैतिक मंच और राहुल के नामांकन के समय वाड्रा भी मौजूद थे, इसलिए वाड्रा के कारनामों का सरोकार राजनीति से अलग नहीं माना जा सकता। हालांकि नरेन्द्र मोदी ने हमेशा अपनी रैलियों में विकास के सकारात्मक मुद्दों की चर्चा की है। उन्होंने केवल यह प्रश्न किया कि जिसकी जेब में केवल एक लाख रूपये थे, उसके पास तीन वर्षों में तीन सौ करोड़ कैसे हो गये ? इसे परिवार पर आरोप या व्यक्तिगत चरित्र हनन नहीं माना जा सकता। राजनैतिक अधिकार और पद के दुरुपयोग के जो मामले हैं उनकी सच्चाई जानने के अधिकार को कोई मार्मिक अपील नहीं रोक सकती।
चुनाव के छह चरण हो चुके हैं। यह तथ्य भी प्रकाशित हो चुका है कि पांच से दस प्रतिशत मतदान में वृद्धि हुई है। २००९ के चुनाव में रतलाम और खरगोन जैसे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में जहां रतलाम में २००९ में प्रतिशत ५०.९३ था, वह बढ़कर ६३.१२ हो गया और खरगोन में पूर्व में ६०.१८ प्रतिशत था, जो बढ़कर ६७.४९ हो गया है। इन दोनों क्षेत्रों में सात से तेरह प्रतिशत मतों की वृद्धि हुई है। जब कि मुंबई और बैंगलोर जैसे शिक्षित और विकसित क्षेत्रों में अपेक्षाकृत कम मतदान हुआ है। इस आधार पर यह आंकलन हो सकता है कि शहरी मतदाताओं की बजाय ग्रामीण मतदाता अपने मताधिकार के प्रति अधिक सजग हैं। चाहे स्वतंत्रता आंदोलन हो या गांधी जी का स्वदेशी आंदोलन हो, इनकी जड़ें ग्रामीण अंचल में गहराई से जमी और ग्रामीणों के आक्रोश से नेतृत्व पैदा हुआ। यदि एक राज परिवार को अपवाद के नाते छोड़ दें तो गांधीजी, लाल बहादुर शास्त्री, जयप्रकाश नारायण आदि नेता ग्रामीण अंचल में पैदा हुए। इस कारण यह आंकलन हो सकता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व का मूल गांव में रहा है। मतदान का उत्साह ग्रामीण अंचल में अधिक रहा तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ है। शहरी लोगों की तरह गांव के लोग बातों की जुगाली नहीं करते, बल्कि वे समस्याओं के निराकरण के लिए अपना मत देते हैं।
अब सबके लिए यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि १६ मई को किसके पक्ष में चुनाव परिणाम होंगे, किसको दिल्ली की सरकार में स्थापित होने का अवसर मिलेगा और किसको विपक्ष में रहना होगा। जिसे नरेन्द्र मोदी के पक्ष में लहर कहा जा रहा है, उससे केन्द्र में स्थापित होकर सत्ता के अधिकार मोदी जी को मिलेंगे या नहीं। तीसरे मोर्चें का कुनबा प्रभावी होकर, राजनीति को अस्थिर तो नहीं करेगा ? ये सारे सवाल राजनैतिक नेतृत्व के साथ आम लोगों के भी हैं। जनता चाहती है कि देश की भाग्य डोर ऐसे हाथों में रहे जो स्थिरता के साथ देश को वैभव के शिखर पर ले जाने का सक्रिय और ईमानदार प्रयास कर सके। चाहे वाराणसी में नरेन्द्र मोदी के समर्थन में उमड़ा विराट जन समुदाय हो या मोदी जी की रैलियों में जमा लाखों की भीड़ हो। जिन क्षेत्रों में भाजपा का प्रभाव कम है यदि दक्षिण के केरल, तमिलनाडु और पूर्वांचल के असम, अरूणाचल में भी मोदी की रैलियों में लाखों की भीड़ जमा होती है तो यह तो जाहिर हो गया कि मोदी का नेतृत्व सबसे अधिक लोकप्रिय है। देश ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में मान लिया है। पांच से दस बारह प्रतिशत मतदान में जो वृद्धि हुई है, उससे भी स्पष्ट होता है कि देश की जनता बदलाव चाहती है। यह सवाल है कि यह बदलाव सकारात्मक होता है या नकारात्मक ? लोकतंत्र के बारे में अमेरिकी कवि जेम्स रसेल ने कहा है कि लोकतंत्र की आम तौर पर यह आदत होती है कि जो लोग सत्ता में हैं, वह उनसे कष्टकर क्षण पर पूछता है कि क्या वे सत्ता में रहने लायक हैं ?
(लेखक - राष्ट्रवादी लेखक और वरिष्ठ पत्रकार है)
