अग्रलेख

एक भारत-समर्थ भारत

  • राजनाथ सिंह 'सूर्य'


सेक्युलर बनाम सांप्रदायिकता के प्रसंगहीन मुद्दे को उभारने में असफल होने के बावजूद उसे ही पकड़े रहने की मजबूरी से विकास के मुद्दे को निरर्थक साबित करने का प्रयास ज्यों-ज्यों अधिक मुखरित करने की मुहिम बढ़ती गई, भारतीय मतदाताओं में परिपक्वता की उतनी ही अधिक पैठ सामने आती गई जो एक के बाद एक चरण के मतदान में गत निर्वाचन के मुकाबले पंद्रह से पच्चीस प्रतिशत वृद्धि से परिलक्षित होती है। विकास के लिए परिवर्तन ने अन्य सभी मुद्दों को मुर्दा बना दिया है। इसलिए चाहे सिने जगत के कुछ ''प्रतिबद्ध प्रगतिशील हों या साहित्य क्षेत्र के सरपंच होने का दावा करने वाले प्रवक्ता सभी की अपील का मुद्दा मतदाताओं के लिए बेमानी साबित हो रहा है। हमारे देश के पूर्व निर्वाचनों में भी भयादोहन के प्रयास के बीच विकास का ही मुद्दा प्रमुख रहा है। यह बात अलग है कि समग्र विकास के बजाय खंड-खंड विकास के आश्वासनों ने विकास तो किया नहीं लेकिन सामाजिक सद्भावना को खंड-खंड करने में अधिक योगदान दिया। मतदाताओं को अपनी ओर आकृष्ट करने की इस विद्या को ही ''वोट बैंक की राजनीतिक प्रयास की संज्ञा प्रदान की गई है। राजनीति करने वालों को यह भ्रम इस बार के निर्वाचन में मतदाताओं ने न केवल नकार दिया है अपितु यह भी प्रदर्शित किया कि किसी एक प्रकार के ध्रुवीकरण की प्रतिक्रिया दूसरे प्रकार के अब तक के किसी भी ध्रुवीकरण से कहीं अधिक प्रभावशाली ढंग से उभारी है। लेकिन एक ही प्रकार के ध्रुवीकरण में आस्था प्रगट करते रहने और संलिप्तता के मतदान के प्रथम कुछ चरण में परिणाम देखने के बावजूद दीवार पर लिखी इबारत को पढऩे के बजाय वे अपने ''कीर्तन से भयादोहन की राजनीति करने में लगे हुए हैं। इसका एक परिणाम यह हो रहा है कि जहां अब तक एक प्रकार का ध्रुवीकरण शत प्रतिशत होने की ओर बढ़ता रहा है, उसमें मतदान के प्रति अनुकूलता घटती जा रही है तथा दूसरी ओर दूसरे प्रकार के ध्रुवीकरण में मतदान के लिए जोश बढ़ता जा रहा है। इसमें सबसे अधिक योगदान युवा पीढ़ी का हो रहा है जिसके एक वर्ग में जकडऩ से निकलने की छटपटाहट मतदान के प्रति हतोत्साहित कर रही है वहीं बड़े वर्ग में जोश पैदा कर रही है।
भारत में सेक्युलरिज्म का तात्पर्य है अपने अतीत, परंपरा, संस्कृति से नाता तोडऩा और बहुमत समाज के लिए घृणा अथवा भेदभाव के लिए दोषी ठहराना। इसलिए प्रत्येक हिंसात्मक वारदात के बजाय सेक्युलर जनता द्वारा हिन्दुत्व की भावना को दोषी ठहराने का अभियान चल पड़ता रहा है जो अल्पसंख्यक कहलाते हैं-जबकि लोकतंत्र में अल्पसंख्यक बहुसंख्यक की अवधारणा निरर्थक है क्योंकि सभी नागरिक को समान अधिकार है-विशेषकर मुसलमानों को उसी प्रकार अपना वोट बैंक बनाकर सफलता पाने की होड़ बढ़ती गई जैसा कि पाकिस्तान चाहने वालों ने किया था। महात्मा गांधी के रामराज्य के आग्रह के पाकिस्तान के लिए आग्रही लोगों ने ''हिन्दूराज थोपने के रूप में प्रचारित कर भयादोहन के सहारे जिस पाकिस्तान को हासिल किया उसने उसके लिए हामीकार भारतीय मुसलमानों के प्रति संदिग्धता को बढ़ावा दिया और वह स्वयं भी भयादोहन का
शिकार बनकर इस संदिग्धता को बढ़ावा देता गया। भारत में संप्रदायों की कितनी संख्या है इसकी गणना करना संभव नहीं है। लेकिन उनके बीच सांप्रदायिक उन्माद ने कभी स्थान नहीं पाया, क्योंकि भारतीय सोच सर्वधर्म समभाव की रही है और है। इसी भाव की अभिव्यक्ति ''भारत प्रथम-संविधान एकमात्र धर्मग्रन्थ के रूप में मुखरित की गई। जो लोग योरोपीय अवधारणा के सेक्युलरिज्म में विश्वास करते हैं वे समभाव की अवधारणा को समझने में असफल रहे हैं। उनकी अवधारणा पर साम्यवादी अवधारणा हावी है जो अतीत को हीन मानकर उसे नष्ट करने और खंडित समाज में सहज पैठ की रणनीति में विश्वास रखती है। यह विचारधारा यद्यपि सारी दुनिया में-जहां सबसे अधिक प्रस्फुटित हुई थी उस रूप में भी-जमीदोज हो चुकी हैै तथापि भारत में कुछ विखंडित रूप में अपने लिए अवसर की तलाश में अभी भी लगे हुए हैं। आश्चर्य यह है कि जो लोग महात्मा गांधी की परंपरा में आस्थावान होने का दावा करते हैं वे भी अनास्था के रूप में सेक्युलरिज्म को स्थापित करने वालों की जमात से प्रभावित होकर ''रामराज्य की अवधारणा को अब सांप्रदायिक मानने लगे हैं। शायद कांग्रेस वैचारिक खोखलेपन के निचले स्तर पर पहुंच जाने के कारण ही घिनौने
प्रकार के अपशब्दों के प्रयोग पर उतर आई है। खीझकर अपने इस प्रयास के कारण ही परिणाम के रूप में वह निरर्थक होती जा रही है।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि देश इस समय ''परिवर्तन की मुद्रा में है। भय-भयादोहन, भ्रष्टाचार ढोंग की राजनीति, सत्ता से लूट और आश्वासन की घुट्टी पीते पीते वह ऊब गई है। समग्र विकास के स्थान पर समाज को विभाजित करने वाली बांटो और राज करो की राजनीति से बढ़े सामाजिक तनाव से वह मुक्त होकर विकास की आस में एकजुट है। उसे एकमात्र नरेंद्र मोदी से ही सकारात्मक अपेक्षा है क्योंकि उन्होंने निराशा के गर्त में डूबे और हताश भारत में उज्जवल भविष्य के प्रति आशान्वित किया है। भय, भूख और भ्रष्टाचार से मस्त भारत में एक भारत-समर्थ भारत, गौरवमयी भारत को देखने की जो अपेक्षा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रेरक बनी थी, उसकी इस बारे में निर्वाचन में पुनरावृत्ति हुई है। नेतृत्व के प्रति अविश्वसनीयता का स्थान आस्था ने ले लिया है। प्रत्येक भारतीय में भारतीयत्व का प्रस्फुटन हुआ है, जिसके कारण ही विवश होकर भारतीयत्व के विज्ञापनी आस्था प्रगट किया है। लेकिन उन्हें भारतीयत्व के प्रति आस्था से अधिक अपने परिवार की देन का अभियान अभी भी कायम है। शायद यही कारण है कि अमेठी में राहुल गांधी को उसी प्रकार सौंप देने का स्मरण दिलाया है जैसे इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी को सौंपा था। इस सौंपने के इतिहास को भी वे तोड़ मरोड़कर पेश कर रहे हैं। सौंपा तो संजय गांधी को था जिन्होंने उस पिछड़े क्षेत्र को उद्योग क्षेत्र बना दिया था। उनकी अचानक मौत के बाद राजीव गांधी और राहुल गांधी को चुनने के साथ ही एक के बाद एक सारे उद्योग बंद होते गए। क्यों? झूठ के पांव नहीं होते इसलिए तेजी से फैलने के बावजूद धरातलीय सत्य नहीं बनता। इसलिए जब उसकी पोल खुलती है तो उसका स्थायी प्रभाव होता है। कांग्रेस के दावों की पोल पिछले दस वर्षों की हकीकत सामने के कारण इतने अधिक प्रभावशाली तरीके से खुल चुकी है कि इस बार मतदाता उनके द्वारा किए जा रहे दावों और वादों पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है। यह बात सेक्युलरिज्म के नाम पर घोर सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति करने वालों को समझ में आ रही है लेकिन लीक से हट पाना संभव नहीं है। वे किसी एक दंगे को पकड़कर बैठ गए हैं लेकिन देश के एक अन्य भाग कश्मीर से कई लाख की संख्या में उत्पीडि़त और निर्वासित कर दिए गए पंडितों के हित में बोलना तक उचित नहीं समझते क्योंकि ऐसा करना उनकी सेक्युलरिज्म की अवधारणा के विपरीत है।
कंग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने एक मोबाइल कंपनी के विज्ञापन को अंगीकार कर ''मोदी उल्लू न बनाओÓÓ का अभियान उनके लिए ही भारी पड़ा लोग पूछने लगे कौन किसे उल्लू बना रहा है। यही स्थिति उस प्रत्येक आक्षेप और दावों की हो रही है जो एक भारत समर्थ भारत के अभियान को धूमिल करने के लिए किया जा रहा है। भारत का अवाम एक भारत-समर्थ भारत के लिए जागृत हो चुका है उसे फिर से नींद की गोली खिलाकर सुलाने के लिए प्रयासरत लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि ''समय होत बलवानÓÓ। समय के इस बलवान स्वरूप को राजनीति करने वाले सभी लोग भी देख रहे हैं लेकिन उसे स्वीकार किया केवल उमर अब्दुल्ला ने यह कहकर कि कश्मीर सहित सारे देश में मोदी की लहर है।

Next Story