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ज्योतिर्गमय

ज्ञान का विरोधी है मोह

चैतन्य महाप्रभु का कहना है कि जीव का स्वरूप परमेश्वर के नित्य दास के रूप में है।
इस नियम को भूल जाने के कारण जीव प्रकृति द्वारा बद्ध हो जाता है। लेकिन परमेश्वर की सेवा करने से वह ईश्वर का मुक्त दास बनता है। जीव का स्वरूप सेवक के रूप में है।
उसे माया या परमेश्वर में से किसी एक की सेवा करनी होती है। यदि वह परमेश्वर की सेवा करना चाहता है, तो वह अपनी सामान्य स्थिति में रहता है। लेकिन यदि वह बाह्यशक्ति माया की सेवा करना पसंद करता है, तो वह निश्चित रूप से बंधन में पड़ जाता है।
इस भौतिक जगत में जीव मोहवश सेवा कर रहा है। वह काम तथा इच्छाओं से बंधा हुआ है, फिर भी अपने को जगत का स्वामी मानता है। यही मोह कहलाता है। मुक्त होने पर व्यक्ति का मोह दूर हो जाता है और वह स्वेच्छा से भगवान की इच्छानुसार कर्म करने के लिए परमेश्वर की शरण ग्रहण करता है।
जीव को फांसने का माया का अंतिम पाश यह धारणा है कि वह ईश्वर है। जीव सोचता है कि अब वह बद्धजीव नहीं रहा, अब तो वह ईश्वर है। वह इतना मूर्ख होता है कि वह यह नहीं सोच पाता कि यदि वह ईश्वर होता तो इतना संशयग्रस्त क्यों रहता। वह इस पर विचार नहीं करता।
इसलिए यह माया का अंतिम पाश होता है. वस्तुत: माया से मुक्त होना भगवान श्रीकृष्ण को समझना है और उनके आदेशानुसार कर्म करने के लिए सहमत होना है। मोह ज्ञान का विरोधी होता है। वास्तविक ज्ञान तो यह समझना है कि प्रत्येक जीव भगवान का शात सेवक है।
लेकिन जीव अपने को इस स्थिति में न समझकर सोचता है कि वह सेवक नहीं, अपितु इस जगत का स्वामी है, क्योंकि वह प्रकृति पर प्रभुत्व जताना चाहता है। यह मोह भगवतकृपा से या शुद्ध भक्त की कृपा से जीता जा सकता है। इस मोह के दूर होने पर मनुष्य कृष्णभावनामृत में कर्म करने के लिए राजी हो जाता है।

Updated : 27 March 2014 12:00 AM GMT
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