प्रचार में सोनिया के अभाव से कांग्रेस कार्यकर्ता चिंतित

नई दिल्ली | कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने भले पार्टी का घोषणापत्र जारी किया हो, पर कांग्रेस का आम कार्यकर्ता प्रचार से उनकी दूरी के कारण चिंतित है।
कांग्रेस के सबसे अधिक समय बने रहे पार्टी अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी ने पिछले कुछ वर्षों में अपनी अलग पहचान बनाई है। 2004 और 2009 के चुनावों में पार्टी की सत्ता में वापसी कराने के कारण भी उनकी सराहना होते आई है। किन्तु, इस बार अब तक वे प्रचार से बिलकुल गायब ही है। ना पार्टी के पोस्टर पो उनकी छवी दिखाई देती है, न ही किसी विज्ञापन में या फिर अन्य प्रचार सामग्री में। टीवी पर सबसे ज्यादा प्रचारित विज्ञापन में भी सोनिया का दर्शन केवल आखरी कुछ क्षणों में ही होता है। पर, कार्यकर्ताओं को खलनेवाली सबसे बड़ी बात है प्रचार सभाओं से उनका गायब रहना।
कांग्रेस के कुछ नेताओं का मानना है की, सोनिया की अनुपस्थिती के कारण पार्टी के प्रचार की जान ही चली गई है। पर, अन्य कई नेता और विश्लेषकोंका मानना है की सोनिया के अनुपस्थिती का परिणाम केवल प्रचार ही नहीं बल्कि चुनाव से संबंधित निर्णयप्रक्रिया पर भी दिखाई देने लगा है। मंझले स्तर के नेताओं का मानना है की, पार्टी के पोस्टरों पर सोनिया की वापसी का परिणाम छोटे कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने में भी मददगार शाबित होगा।
पार्टी उपाध्यक्ष राहूल गांधी की कार्यशैली से अनेक कार्यकर्ता नाराज़ है, पर इसके बारे में कोई खुलकर बात नहीं करना चाहता। पार्टी के प्रचार की दुःस्थिती के लिए भी कार्यकर्ताओं की इसी मानसिकता को जिम्मेदार बताया जा रहा है। ऐसे में कई वरिष्ठ पार्टी नेताओं का मानना है की सोनिया को प्रचार की कमान हाथ में लेनी ही होगी। केवल इक्का-दुक्का सभाओं से काम नहीं चलनेवाला। कांग्रेस के जानकारोंका यह भी मानना है की, पार्टी प्रचार में सोनिया की वापसी जल्द ही देखी जाएगी। कुछ नेताओं की माने तो अगले हफ्ते भर में सोनियाकेंद्री प्रचार शुरू हो सकता है। इसी सप्ताहांत में दिल्ली में सोनिया की एक सभा भी आयोजित की जा रही है। इस सभा के बाद हैदराबाद, बिहार और असम में भी उनकी सभाएं कराए जाने की चर्चा भी है।
कांग्रेस प्रचार के सूत्रधारों के अनुसार प्रचार में सोनिया के अग्रेसर होने का परिणाम पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल के साथ साथ संप्रग के सहयोगी दल एवं पार्टी के वरिष्ठ नेताओं पर भी दिखेगा। गौरतलब है की, पिछले दिनों जब पी चिदंबरम, जी के वासन, के वी थंगबालू और जयंती नटराजन जैसे पार्टी नेताओं ने कहा की वे चुनाव लड़ना नहीं चाहते है, तब सोनिया ने हस्तक्षेप करते हुए इस निर्णय के कारण पूरी पिढी पार्टी से टूट न जाए इसके लिए प्रयास किए और मणिशंकर अय्यर तथा एलंगोवन जैसे नेताओं को टिकट दिलवाए। इसी तरह राकांपा के नेताओं ने भाजपा नेता नरेंद्र मोदी से परहेज न होने के संकेत दिए तब शरद पवार को शांत कराने के प्रयासों की अगुवाई सोनिया ने ही की थी।
राहूल और उनके सहयोगी आम तौर पर राज्यों से आए हुए छोटे नेताओं को समय नहीं देते है। इससे इन नेताओं में पार्टी में कोई स्थान न रहने की भावना बढ़ती है। सोनिया के साथ ऐसा नहीं है। वे लोगों को सुनती है और उन्हें विश्वास दिलाने में कामियाब होती है की हर कोई कुछ न कुछ सहभाग देनें में सक्षम है।
कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में यह भावना भी दृढमुल होते जा रही है की जब, जगदंबिका पाल और सतपाल महाराज जैसे, जिन्हें दलबदलू नहीं कहा जा सकता, नेता पार्टी का दामन छोड़ते है, तब यह जरूर मान लेना चाहिए की कहीं कुच गडबड जरूर है। केवल आकर्षणों के कारण नहीं अपितु नए नेतृत्त्व पर विश्वास न होने के कारण नेता पार्टी छोड रहे है। हाल ही में भाजपा नेता अरूण जेटली के खिलाफ टक्कर लेने के लिए पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को मनवाने में सोनिया का बड़ा हाथ रहा। पर, पार्टी के अंतर्गत सूत्रों के अनुसार अब ऐसी घटनाएं, जब पार्टी अध्यक्ष किसी नेता या सहयोगी दल को मनवाने में सक्रीय रही हो, अपवादात्मक ही बची है, जिससे वरिष्ठ नेतागण काफी चिंतित है।
पर अब इन स्थितियों से उभरने के लिए वे पुनः सक्रीय हो जाएगी और जल्द ही पार्टी की सभाओं में तथा प्रचार साहित्य में दिखने भी लगेगी, ऐसा विश्वास वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जता रहे है।

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