Home > Archived > ज्योतिर्गमय

ज्योतिर्गमय

संकल्प और समर्पण


मानव एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहां से अशुभ कर्म करके वह अपनी चेतना को नीचे गिराकर पशु जगत की चेतना को धारण कर सकता है। मानव यदि प्रयास करे तो वह अपनी चेतना को देवतुल्य भी बना सकता है। सवाल यह उठता है कि अपनी चेतना को कैसे विकसित कर देवतुल्य बनाया जाए? इस महत्वपूर्ण कर्म के लिए उसे सर्वप्रथम संकल्प की साधना करनी होगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि मन की गति जल की भांति नीचे की ओर बहने की है और यह मन की पुरानी आदत भी है। इसी कारण मन बाजार जाने के लिए तुरंत उतावला हो जाता है, परंतु मंदिर जाने में जोश कम ही दिखाई पड़ता है। इस दशा में संकल्प द्वारा मन को जीतना आवश्यक है। ऐसा इसलिए, क्योंकि मन ही शरीर का निदेशक है।
संयमवान मन के द्वारा शरीर केवल शुभ कर्म ही करता है। संकल्प रूपी हथियार से साधक मन को वश में कर लेता है, तब फिर मन वैसे ही नाचने लगता है, जैसे मदारी बंदर को नचाता है। हम सब प्राय: शरीर के तल पर जीते हैं। यानी इंद्रियों के गुलाम हैं। आंख दृश्य देखना चाहती है, कान अच्छा शब्द सुनना चाहते हैं। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि मन के आदेशानुसार शरीर कार्य करता है, परंतु संकल्प द्वारा मन वह नहीं कर पाता जो वह करना चाहता है। हर नया अच्छा कार्य करने के लिए मन संकल्प द्वारा ही तैयार होता है, अन्यथा मन पुराने ढर्रे पर चलने का आदी है। दिन में रोज सोचते रहें कि कल से प्रात: टहलने जाना है, पर कल प्रात: नींद के वशीभूत हो हम टहलने से चूक जाते हैं। संकल्प द्वारा ही नींद को त्यागकर प्रात: हम टहलने में समर्थ हो पाते हैं। समर्पण का अर्थ है-अहंकार को पूर्णत: नष्ट कर देना। साधना के सभी साधन भक्ति, ज्ञान और राजयोग मूलत: अहंकार को शून्य करने की साधना है। अहंकार और मन का चोली-दामन का साथ है। केवल संकल्पित मन ही अहंकार को गिराता है। अहंकार ही चैतन्य और शरीर के बीच का पर्दा है। अहंकार ही सब विकारों का मूल है। इसलिए स्वयं को जानने के लिए अहंकार रूपी पर्दा हटाना अति आवश्यक है। अहंकार हटाने की विधि समर्पण है। समर्पण का अर्थ है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। अहंकार का अर्थ है सिर्फ मैं श्रेष्ठ हूं, अन्य सब तुच्छ हैं।

Updated : 24 March 2014 12:00 AM GMT
Next Story
Top