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ज्योतिर्गमय

परम सत्य की महिमा


परम सत्य के वास्तविक ज्ञाता हैं, वे जानते हैं कि आत्मा का साक्षात्कार तीन रूपों में किया जाता है- ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान।
परम सत्य के साक्षात्कार में भगवान पराकाष्ठा होते हैं, अतएव मनुष्य को चाहिए कि भगवान को समझने के पद तक पहुंचे और भगवान की भक्ति में लग जाए। यही ज्ञान की पूर्णता है। विनम्रता से लेकर भगवद् साक्षात्कार तक की विधि भूमि से चल कर ऊपरी मंजिल तक पहुंचने के लिए सीढ़ी के समान है।
इस सीढ़ी में कुछ ऐसे लोग हैं, जो अभी पहली सीढ़ी पर हैं, कुछ दूसरी पर, तो कुछ तीसरी पर। किन्तु जब तक मनुष्य ऊपरी मंजिल पर नहीं पहुंच जाता, जो कृष्ण का ज्ञान है, तब तक वह ज्ञान की निम्नतर अवस्था में ही रहता है।
स्पष्ट कहा गया है कि विनम्रता के बिना ज्ञान संभव नहीं है. यद्यपि जीव प्रकृति के कठोर नियमों द्वारा ठुकराया जाता है, फिर भी वह अज्ञान के कारण सोचता है कि 'मैं ईश्वर हूं। यदि कोई ईश्वर की बराबरी करते हुए आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करना चाहता है, तो उसका प्रयास विफल होगा। मनुष्य को विनम्र होना चाहिए। परमेर के प्रति विद्रोह के कारण ही मनुष्य प्रकृति के अधीन हो जाता है। मनुष्य को इस सच्चाई को जानना चाहिए।
जिस प्रकार सूर्य अपनी अनन्त रश्मियों को विकीर्ण करता है, उसी प्रकार परमात्मा या भगवान भी सर्वव्यापी रूप में स्थित हैं. उनमें आदि शिक्षक ब्रह्मा से लेकर चींटी तक के सारे जीव स्थित हैं। उनके अनन्त सिर, हाथ, पांव तथा नेत्र हैं और अनन्त जीव हैं।
ये सभी परमात्मा में स्थित हैं। अतएव परमात्मा सर्वव्यापक हैं। लेकिन आत्मा यह नहीं कह सकती कि उसके हाथ, पांव तथा नेत्र चारों दिशाओं में हैं। परमात्मा अपना हाथ असीम दूरी तक फैला सकता है, किन्तु आत्मा ऐसा नहीं कर सकती। परमात्मा पृथ्वी से बहुत दूर अपने धाम में स्थित है, तो भी वे किसी के द्वारा अर्पित वस्तु ग्रहण कर सकते हैं। यही उनकी शक्तिमत्ता है।

Updated : 15 March 2014 12:00 AM GMT
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