ज्योतिर्गमय
शुभस्य शीघ्रम्
शुभ (अच्छे) काम शीघ्र करना और अशुभ (बुरे) काम न करने की जो शिक्षा हमारी आध्यात्मिक संस्कृति देती है, उसका तात्पर्य व्यक्ति को सकारात्मक बनाना है। क्योंकि सकारात्मक विचार ही व्यक्ति को अच्छे काम करने की प्रेरणा देते हैं।
मुख्यत: दो ही तरह के कार्य होते हैं। शुभ अथवा अशुभ। मान्यता है कि शुभ कर्म से पुण्य (अच्छे परिणाम) की व अशुभ कर्म से पाप (बुरे परिणाम) की सृष्टि होती है। कहा गया है कि शुभस्य शीघ्रम, अशुभस्य कालहरणम् अर्थात् अच्छे काम को जितना जल्दी हो सके कर डालें और बुरे काम को जितना भी टाल सकें, टालते रहें। समय गुजर जाने दें। यदि हम शुभ कार्य को जल्द नहीं करेंगे, तो हम उस क्षण को चूक जाएंगे, तो वापस नहीं आता। हम किसी नेक काम अथवा पुण्य अथवा उसके अच्छे परिणाम से वंचित अवश्य रह जाएंगे। किसी छूटे हुए नेक काम को करने का अवसर दोबारा नहीं मिलता। हम सबने अपने जीवन में अवश्य ही कई बार ऐसा अनुभव किया होगा कि अवसर खो देने के बाद हम उस अवसर की बाट जोहते रहते हैं, पर वह नहींआता। इसीलिए शुभ कार्य आज ही नहीं, बल्कि अभी करना चाहिए।
अशुभस्य कालहरणम् अर्थात् अशुभ अथवा पाप कर्म के लिए शीघ्रता न करें, अपितु समय गुजर जाने दें। आम तौर पर यही होता है कि हम किसी भावना के वशीभूत होकर बुरे कार्य करने लगते हैं। लेकिन समय गुजर जाने से संभव है कालांतर में कहीं से ऐसी सद्बुद्धि मिल जाए कि पाप कर्म से आप विरत हो जाएं और उसके बुरे परिणाम का आपको भान हो जाए। आज इस विश्व में इतने आणविक, परमाणविक व अन्य अस्त्र-शस्त्र उपलब्ध हैं, जिनसे इस ख़ूबसूरत दुनिया को इसके संपूर्ण जीव जगत सहित अनेकानेक बार पूर्णत: नष्ट-ध्वस्त किया जा सकता है, लेकिन कुछ अच्छे व समझदार लोगों की अशुभस्य कालहरणम् नीति व दृष्टि के कारण ही हम जीवित हैं। महाभारत में कहा गया है कि परोपकार: पुण्याय: पापाय परपीडनम् अर्थात् परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है। पुण्य है। और, परपीडऩ अर्थात् दूसरों को कष्ट पहुंचाना ही अधर्म और पाप है।
पीड़ा चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक, यह पाप है। अत: ऐसे किसी भी बुरे कर्म से बचने के लिए एक ही उपाय है और वह यह कि किसी भी अशुभ कार्य को करने में शीघ्रता न करें।
किसी को पुरस्कृत करना है तो शीघ्रता करें, लेकिन किसी को दंड देना है तो थोड़ा ठहर जाएं।
केवल शुभ कर्म ही करें, पर कैसे? कर्म का मूल है विचार। सकारात्मक विचार द्वारा ही पुण्य संभव है। अत: सकारात्मक विचारों को दृढ़ करते रहें। जब नकारात्मक विचार होंगे ही नहीं, तो पाप कर्म भी नहीं होगा। सकारात्मक विचार इतने ज्यादा और इतने दृढ़ हों कि उनको पूरा करने में ही हमारी सारी ऊर्जा, सारी सामथ्र्य लग जाए।