ज्योतिर्गमय
आत्मा ही है सब कुछ
मनुष्य की अपनी आत्मा ही सब कुछ है। आत्मा से रहित वह एक मिट्टी का पिंड मात्र है। शरीर से जब आत्मा का संबंध समाप्त हो जाता है, वह मुर्दा हो जाता है।
संसार के सारे संबंध आत्मा द्वारा ही निहित हैं। जब तक उसमें आत्मभाव बना रहता है, तब तक प्रेम और सुख आदि की अनुभूति बनी रहती है और जब यह आत्मीयता समाप्त हो जाती है, वही वस्तु या व्यक्ति अपने लिए कुछ नहीं रह जाता। किसी को अपना मित्र बहुत प्रिय लगता है।
उससे मिलने पर हार्दिक आनंद मिलता है, न मिलने से बेचैनी होती है, किन्तु जब किसी कारणवश उससे मैत्री भाव समाप्त हो जाता है, वही अपने लिए एक सामान्य व्यक्ति बन जाता है। उसके मिलने, न मिलने में किसी प्रकार का हर्ष या विषाद नहीं होता। सुख और आनंद की सारी अनुभूतियां आत्मा से संबंधित होती हैं, किसी वस्तु, विषय, व्यक्ति अथवा पदार्थ से नहीं। सुख का संसार आत्मा में ही बसा है, उसे उसमें खोजना चाहिए।
मनुष्य की अपनी विशेषता ही उसके लिए उपयोगिता व स्नेह सौजन्य उपार्जित करती है। विशेषता समाप्त होते ही मनुष्य का मूल्य भी समाप्त हो जाता है और तब वह न किसी के लिए आकर्षक रह जाता है और न प्रिय। मां और बच्चे को ही लीजिए. माता से जब तक बच्चा जीवन रस पाता रहता है, उसके शरीर से अवयव की तरह चिपका रहता है। जरा देर के लिए मां उसे छोड़कर कहीं गयी नहीं कि वह रोने लगता है, किन्तु जब इसी बालक को अपनी सुरक्षा व जीवन के लिए मां की गोद और दूध की आवश्यकता नहीं रहती अथवा रोग आदि के कारण मां की यह विशेषता समाप्त हो जाती है, बच्चा अलग भी रहने लगता है।
मनुष्य की विशेषताएं ही स्नेह, सौजन्य या प्रेम आदि की सुखद स्थितियां उत्पन्न करती हैं। मनुष्य के मन, प्राण और शरीर तीनों का संचालन, नियंत्रण व पोषण आत्मा की सूक्ष्म सत्ता द्वारा होता है। आत्मा और इन तीनों के बीच जरा-से व्यवधान से सारी व्यवस्था बिगड़ जाती है। सुंदर, सुगठित और स्वस्थ शरीर की दुर्दशा हो जाती है। मनुष्य की आत्मा ही उसका सच्चा मित्र, सगा-संबंधी और वास्तविक शक्ति है। इसके कारण मनुष्य गुणों और विशेषताओं का स्वामी बनकर अपना मूल्य बढ़ाता और पाता है। जीवन में सुख समृद्धि के उत्पादन, अभिवृद्धि और रक्षा के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह आत्मा की ही शरण में रहे। उसे ही अपना माने, प्रेम करे और उसे खोज पाने में अपने जीवन की सार्थकता समझे।