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ज्योतिर्गमय

सुख-दु:ख का केन्द्र आत्मा 

सुख का निवास किन्हीं विशेष पदार्थों में है, यह धारणा गलत है।
यदि ऐसा होता, तो वे सारे पदार्थ, जिन्हें सुखदायक माना जाता है, सबको समान रूप से सुखी और संतुष्ट रखते अथवा उन पदार्थों के मिल जाने पर मनुष्य सहज ही सुख-संपन्न हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं होता।
संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिन्हें संसार के वे सारे पदार्थ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, जिन्हें सुख का कारण माना जाता है, किन्तु ऐसे संपन्न व्यक्ति भी असंतोष, अशांति अथवा शोक संतापों से जलते देखे जाते हैं। उनके उपलब्ध पदार्थ उनका दु:ख मिटाने में जरा भी सहायक नहीं हो पाते।
वास्तविकता यह है कि संसार के सारे पदार्थ जड़ हैं और जड़ पदार्थ न किसी को स्वयं सुख दे सकते हैं और न दुख। उसमें न सुखद तत्व होते हैं और न दुखद। यह मनुष्य का आत्म तत्व होता है, जो उसमें संबंध स्थापित करके उसे सुखद या दुखद बना लेता है। आत्म तत्व की उन्मुखता ही किसी पदार्थ को किसी के लिए सुखद और किसी के लिए दुखद बना देती है।
जिस समय मनुष्य का आत्म तत्व सुखोन्मुख होकर पदार्थ से संबंध स्थापित करता है, वह सुखद बन जाता है और जब दुखोन्मुख होकर संबंध स्थापित करता है, तब वही पदार्थ उसके लिए दुखद हो जाता है। मनुष्य अज्ञानवश सुख-दुख के इस रहस्य पर विश्वास नहीं करते और सत्य की खोज संसार के जड़ पदार्थों में किया करते हैं। जबकि सुख का निवास पदार्थों में नहीं, आत्मा में है। उसे खोजने और पाने के लिए पदार्थ नहीं, आत्मा की ओर उन्मुख होना चाहिए।
पदार्थों का उपभोग इंद्रियों द्वारा होता है। इन्द्रियों की सक्रियता से ही रस, सुख अथवा आनंद की अनुभूति होती है। जब तक मनुष्य सक्षम होता है, उसकी इंद्रियां सतेज रहती हैं, तब तक उसे पदार्थ और विषयों का आनंद मिलता रहता है, पर जब अशक्त हो जाता है तो वही पदार्थ, जिसमें पहले विभोर कर देने वाला आनंद मिलता था, नीरस और स्वादहीन लगने लगता है।
इंद्रियों का शैथिल्य पदार्थ को नीरस, असुखद व निस्सार बना देता है. रस की अनुभूति इंद्रियों की स्थूल बनावट से नहीं होती। जो वस्तु रस की अनुभूति कराती है, वह है चेतना। यह शरीर और मन प्राण में ओत-प्रोत रहकर मनुष्य की इंद्रियों को रसानुभूति की शक्ति प्रदान करती है। सुख न पदार्थ में है और न किसी अन्य वस्तु में। वह आत्मा में ही जीवात्मा द्वारा अनुभव किया जाता है।

Updated : 13 Feb 2014 12:00 AM GMT
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