अग्रलेख

क्यों विक्षिप्त हैं ममता बनर्जी

  • राजनाथ सिंह 'सूर्य'

प्रतिहिंसा से दग्ध स्वेच्छाचारी आचरण की अभ्यस्त ममता बनर्जी आजकल जैसी विक्षिप्त हो गई हैं यह उनके राजनीतिक करियर में तेजी से उतार का संकेत दे रहा है। विद्रोही स्वभाव के कारण जब उन्होंने कांग्रेस छोड़ी, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से इस्तीफा दिया या वामपंथी सरकार के खिलाफ जियो या मरो का मोर्चा खोला, हर मौके पर उन्होंने अपने राजनीतिक करियर में एक कदम के बाद जन उपयोगी सुशासन स्थापित करने के बजाय उसी विद्रोही स्वभाव के सहारे धाक जमाये रखने की अब जो विक्षिप्त स्वरूप भाजपा के अध्यक्ष को विक्टोरिया स्मारक पर सभा न करने देने की उठा पटक से प्रगट हुआ है उससे शारदा चिट फंड कांड में उनकी संलिप्तता का जो आरोप लगाया जा रहा था, वह विश्वसनीय सा बनता जा रहा है। चिट फंड के मालिक को गिरफ्तारी से बचने के लिए असफल होने के बाद उनके एक के बाद एक सांसदों की गिरफ्तारी, मंत्री की बीमारी से बचाव की कोशिश तथा उसके असम और उड़ीसा में विस्तार का उजागर होना इस बात का सबूत है कि शायद यह देश का सबसे बड़ा घोटाला साबित होगा। इस चिट फंड कंपनी के कारनामों के उजागर होते ही असम के एक पूर्व पुलिस अधिकारी द्वारा आत्महत्या किये जाने तथा उड़ीसा बीजद सांसद की गिरफ्तारी और मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के निजी सहायक से पूछताछ से यह स्पष्ट हो गया है कि सादगी और संघर्ष का प्रतीक बनी ममता बनर्जी एक ऐसे मामले से देश का ध्यान बंटाना चाहती है जिसने लाखों गरीबों की खून पसीने की कमाई को लूटकर कुछ व्यक्तियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को स्वार्थपूर्ति के लिए उपयोग करने के लिए सौंप दिया। इस चिट फंड कांड के साथ ही वर्धमान बम कांड के खुलासे को दबाने और उसमें असफल होने पर केंद्र सरकार आईबी तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा रचित कांड बताने की प्रगल्भता से भरी ममता बनर्जी को अपनी गिरावट का आभास हो जाना चाहिए क्योंकि 24 नवंबर को उनके द्वारा कोलकाता में आयोजित विरोध-प्रदर्शन के लिए आह्वान को जिस प्रकार जनता ने नजरंदाज किया है, उसकी उन्हें कल्पना भी नहीं थी। उनकी यह स्थिति ठीक उसी प्रकार है जैसे साम्यवादियों की विरोध-प्रदर्शन के लिए बंद और रैली से होती गई। सत्ता में रहने वालों से अवाम शासन चलाने की अपेक्षा रखती है न कि बंद करवाने और रैली आयोजित करने की। विरोधियों के प्रति जिस हिंसा का शिकार होकर ममता बनर्जी ने अवाम की अनुकूलता प्राप्त की थी, वही हिंसात्मक आचरण भारतीय जनता पार्टी के प्रति अपनाकर वे साम्यवादियों के समान ही अवाम की निगाह से गिरती जा रही हैं।
गरीबों को धन दुगना करने के नाम पर लूटने के जो तमाम मामले प्रकाश में आये हैं उनमें सबसे वीभत्स मामला शारदा चिटफंड का है। ऐसे लुटेरों को शायद ही किसी ने बचाने का प्रयास किया हो लेकिन ममता बनर्जी जिस प्रकार से सीबीआई पर केंद्र की भाजपा सरकार के इशारे पर बदले की भावना से कार्यवाही करने का आरोप लगा रही हैं, वह उन पर इस कंपनी से लाभान्वित होने के आरोप की ही पुष्टि करता है। यह आरोप भी विश्वसनीय मालूम पडऩे लगा है कि उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव में जो अपार धन व्यय किया उसका ोत यही चिट फंड कंपनी ही रही है। पाकिस्तान के हस्तक बनकर भारत में नफरत बढ़ाने और सामूहिक हत्याओं के दौर से आतंक फैलाने की शाजिश के आरोप में देश के कई राज्यों में गिरफ्तारियां हुई हैं, हो रही है। शायद ही किसी राज्य की सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी, सीबीआई या आईबी पर वैसा आरोप लगाया हो जैसा ममता बनर्जी लगा रही हैं। वर्धमान के विस्फोट और उसमें पकड़े गए लोगों के पक्ष में ममता बनर्जी का विक्षिप्त होकर खड़े होना, उन लोगों को भी पीछे छोड़ गया है जो जेल में बंद इन तत्वों पर से मुकदमा वापिस लेने का असफल प्रयास कर रहे हैं। अवाम गिरती साख और भाजपा के बढ़ते प्रभाव से बौखलाकर उनके पाले हुए गुण्डे जिस प्रकार तोड़ फोड़ आगजनी और हत्याकांड पर उतारू हैं, वैसा ही कुछ साम्यवादियों ने भी उनके साथ किया था। यदि साम्यवादियों का वैसा आचरण न होता तो शायद ममता बनर्जी को बंगाल का मुख्यमंत्रित्व न मिलता। और यदि आज ममता बनर्जी के समर्थकों का साम्यवादियों के समान ही आचरण जारी रहा तो जो भाजपा कोलकाता नगर निगम में एक सीट जीतने के लिए तरसती रही है, उसका व्याप्त सभी अनुमानों को पीछे छोड़ सकता है।
शारदा चिटफंड और वर्धमान बम कांड से घिरी ममता बनर्जी कालेधन पर केंद्रीय सरकार को घेरने के लिए अपने सांसदों को असंसदीय और असंगत आचरण पर उतारू होने के लिए जैसा निर्देशित कर रही है उससे यही प्रतीत होता है कि वे लोगों को ध्यान, अपनी छत्रछाया में चल रही जन धन की लूट और देशद्रोही की गतिविधियों से बंटाना चाहती है। क्या यह संभव हो सकेगा? दोनों ही मामले में एक के बाद एक जो खुलासा हो रहा है उससे स्पष्ट है कि वे मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुए तमाम घोटालों में उनके समान मौन साधकर सहानुभूति बटोरने के बजाय विक्षिप्तता से लिप्तता के आरोपों को और परिपुष्ट कर रही है। जहां एक ओर मां-माटी और मानुस के प्रति उनकी निष्ठा की असलियत सामने आ गई है, वही सीमावर्ती राज्य की किसी सरकार की आतंकवादियों के प्रति अनुकूलता से देश के लिए बढ़ते खतरे की सघनता बढ़ते जाने का कारण भी समझ में आने लगा है। जब जनसमर्पित नेता के समान आचरण करने के बजाय ममता बनर्जी सत्ता की भूखी प्रतिहिंसक के रूप में दिखाई पडऩे लगी हैं। यह इस बात का खुलासा करता है कि उनका विद्रोही स्वरूप वस्तुत: मूल भावना पर परदा डालने के लिए ही रहा है। न तो उन्हें कभी मां की चिंता रही है न माटी की और न मानुस की ही। सत्ता संभालने के बाद से उनके आचरण से ऐसी निष्ठा का कोई उदाहरण नहीं मिलता। राजनीतिक विरोधियों को समूल नष्ट करने के लिए हिंसात्मक उपाय, गरीबों को लूटने वालों को बचाने के लिए सुरक्षा एजेंसियों की नीयत पर अंगुली उठाना और ध्यान बंटाने के लिए संसदीय मर्यादा को तार-तार करने के लिए अपने सांसदों को छूट देना, उनके तानाशाही, स्वेच्छाचारी विश्वास का परिचायक है। यह स्वभाव देश की एकता और सुरक्षा के लिए संकट बढ़ाने वाला साबित हो रहा है। इसलिए कि राजनीतिक मोर्चे पर पूरी तरह से पिट गए मोहरे और देशविरोधी गतिविधियों में संलग्न लोगों को उनके ''नेतृत्व में सांस लेने का मौका मिल रहा है। ममता बनर्जी की राजनीति देश के लिए जितनी घातक है उतना उन लोगों का आचरण भी नहीं है जो खुले आम देश के किसी भाग को अलग करने का राग अलापते रहे हैं। ऐसे लोगों का राग अब बेसुरा साबित हो रहा है। इस माहौल की एक ही अच्छी बात है और वह यह कि वर्तमान केंद्रीय सरकार न तो किसी का साथ पाने के लिए पूर्ववर्ती सरकार के समान ब्लैकमेल होने के लिए तैयार है और न अवाम ऐसे ढोंगी आचरण वालों को बर्दाश्त करने के लिए। ममता बनर्जी की विक्षिप्तता उनकी अपनी ही औकात को नष्ट करने का काम कर रही है।

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