Home > Archived > ज्योतिर्गमय

ज्योतिर्गमय

शक्ति का स्रोत


भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि अन्न से ही जीवन का संचरण होता है। शरीर की रक्षा के लिए आहार एक महत्वपूर्ण साधन है। शरीर की बनावट और उसकी आवश्यकता को देखते हुए अलग-अलग ढंग से प्रत्येक जीव के लिए आहार निर्धारित हैं। एक ओर जहां मनुष्य के लिए सुपाच्य आहार बनाया गया वहीं दूसरी ओर पशु-पक्षियों के लिए दूसरे प्रकार के आहार की व्यवस्था की गई। मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, जिसके लिए सुपाच्य और सुगम आहार की व्यवस्था इसलिए की गई है, क्योंकि उसकी पाचन क्रिया सामान्य होती है। हर हालत में गरिष्ठ या भारी आहार से बचने की सलाह दी गई है।
दरअसल, यह वैज्ञानिक तथ्य भी है। जब आहार पेट में जाता है तो शरीर की सारी ऊर्जा या शक्ति उसे पचाने में लग जाती है। शरीर में जो ऊर्जा है उसी से मनुष्य चिंतन करना है, प्रसन्न रहता है और हंसता-बोलता है। अगर यह ऊर्जा भोजन पचाने में लग जाए तो शरीर का दूसरा काम लगभग बंद हो जाता है। यही कारण है कि जो लोग अपने मस्तिष्क से अधिक काम लेते हैं, उनकी सारी ऊर्जा व शक्ति उसी में खर्च हो जाती है और आहार पचाने में ऊर्जा की कमी हो जाने से पाचन क्रिया ठीक से काम नहीं करती। जितने भी बड़े-बड़े चिंतक और विचारक हुए हैं वे सभी नाममात्र का आहार ग्रहण करते थे। महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन अल्प आहार ग्रहण किया करते थे। ऐसा कहा जाता है कि कणाद ऋषि अन्न के कुछ कण लेकर ही स्वस्थ जीवन जीते थे और निंबार्क नीम की छाल खाकर ही दार्शनिक सिद्धांतों की विवेचना किया करते थे। स्पष्ट है कि शरीर को संचालित करने के लिए अत्यंत सामान्य भोजन की आवश्यकता है। जो लोग शरीर से अधिक परिश्रम करते हैं और मस्तिष्क से कम काम लेते हैं उन्हें अधिक भोजन की आवश्यकता होती है। सरल और सुपाच्य आहार ही ग्रहण करें। हमारे यहां उपवास का जो विधान है उसका अर्थ यही है कि जब पेट खाली हो तो जिस व्रत का अनुष्ठान आप कर रहे हैं उसके चिंतन में आपके शरीर की सारी ऊर्जा मदद करेगी। जब ऊर्जा का बहाव मस्तिष्क की ओर पूरी शक्ति से होने लगेगा तो मस्तिष्क का विकास होगा और जब पेट की ओर होने लगेगा तो पेट का विकास होगा। आहार का महत्व शास्त्रों में निर्धारित किया गया है। जो साधक होगा, जो जिज्ञासु होगा उसका आहार सरल व सुपाच्य होगा। 

Updated : 18 Dec 2014 12:00 AM GMT
Next Story
Top