ज्योतिर्गमय
संशय
संशय मनुष्य के जीवन के विकास का सबसे बड़ा अवरोधक है। संशय का अर्थ है कि किसी वस्तु के न होने पर भी आशंका से भयभीत होना। संशय का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। दरअसल, यह होता ही नहीं है। यह काल्पनिक भावना है, जो हमारी आंखों पर धुएं की तरह छा जाती है। संशय एक प्रकार से मनुष्य के जीवन का विकार है। जो संशय अस्तित्वहीन होने पर भी सारे जीवन को प्रभावित कर देता हो, उस संशय के संदर्भ में मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य स्वयं इस कल्पना का निर्माण कर लेता है और फिर उससे भयातुर होकर कांपने लगता है। संशय से मुक्ति का सबसे सरल उपाय यही है कि मनुष्य प्रभु की शरणागति में समर्पित हो जाए। सच्चे मन से प्रभु के लिए समर्पित व्यक्ति को परमात्मा में विश्वास हो जाए तो वह एक ही साथ क्रोध, भय और संशय से मुक्त हो जाता है, लेकिन प्रश्न यह है कि हम कितनी आस्था और विश्वास से परमात्मा के चरणों में सिर नवाते हैं। जो परमात्मा इस ब्रह्मांड के नियंता है, जो स्वयं सृष्टि का कारण है, उसकी शरणागति में जाने वाला कैसे भ्रामक मनोवेग से ग्रस्त हो सकता है? संशय में मनुष्य अपनी शक्ति को भुला देता है, उसमें जो कार्य करने की शक्ति है, उसे नष्ट कर देता है, वह कंपित होने लगता है और उससे उसके जीवन में निराशा आ जाती है। अंतत: संशय से ग्रस्त व्यक्ति मनुष्य जीवन से हताश होकर अकर्मण्य की स्थिति में पहुंच जाता है। संशय एक साथ संपूर्ण शरीर को निष्क्रिय कर देता है। उसके जीवन की सारी विकास यात्रा रुक जाती है और वह अपने भाग्य पर रोते-रोते जीवन गंवा देता है। स्पष्ट है, संशय एक नकारात्मक भाव है और नकारात्मकता से नकारात्मक भाव ही उत्पन्न होता है, सकारात्मक भाव नहीं। इसलिए जब तक नकारात्मक भाव को नहीं छोड़ा जाता, तब तक आशा का दीपक प्रज्जवलित नहीं हो सकता। परमात्मा में विश्वास रखने वाला व्यक्ति हमेशा संशय से मुक्त होता है और अपनी विवेकशक्ति को जाग्रत कर जीवन में अवरोध पैदा करने वाले तमाम विकारों को नष्ट करने की कला जान जाता है।