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ज्योतिर्गमय

चलते रहो

यदि लक्ष्य स्पष्ट हो, उसे पाने की तीव्र उत्कंठा और अदम्य उत्साह हो तो अकेला व्यक्ति भी बहुत कुछ कर सकता है। विश्वकवि रविंद्रनाथ टैगोर का यह कथन कितना सटीक है कि अस्त होने के पूर्व सूर्य ने पूछा कि मेरे अस्त हो जाने के बाद दुनिया को प्रकाशित करने का काम कौन करेगा। तब एक छोटा-सा दीपक सामने आया और कहा प्रभु! जितना मुझसे हो सकेगा, उतना प्रकाश करने का काम मैं करूंगा। आखिरी बूंद तक दीपक अपना प्रकाश फैलाता रहता है। जितना हम कर सकते हैं, उतना करते चलें। आगे का मार्ग प्रशस्त होता चला जाएगा। किसी ने कितना सुंदर कहा है कि जितना तुम कर सकते हो, उतना करो, फिर जो तुम नहीं कर सको, उसे परमात्मा करेगा। जो व्यक्ति आपत्ति-विपत्ति से घबराता नहीं है, प्रतिकूलता के सामने झुकता नहीं है और दुख को भी प्रगति की सीढ़ी बना लेता है, उसकी सफलता निश्चित है। ऐसे धीर पुरुष के साहस को देखकर असफलता घुटने टेक देती है। इसीलिए तो कहा गया है-''चरैवेति चरैवेतिÓÓ यानी चलते रहो, चलते रहो, निरंतर श्रमशील रहो। किसी महापुरुष ने कितना सुंदर कहा है-अंधकार की निंदा करने की अपेक्षा एक छोटी-सी मोमबत्ती, एक छोटा-सा दिया जलाना कहीं ज्यादा अच्छा होता है। महापुरुष समझाते हैं कि व्यक्ति सफलता प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ अवश्य करे, लेकिन अति महत्वाकांक्षी न बने।
किसी के हृदय को पीड़ा पहुंचाकर किसी के अधिकारों को छीनकर प्राप्त की गई सफलता न तो स्थायी होती है और न ही सुखद। ऐसी सफलता का कोई अर्थ नहीं होता। अति महत्वाकांक्षा व्यक्ति को तानाशाह तो बना सकती है, किंतु सुख-चैन से जीने नहीं देती। दिन-रात भय और चिंता के वातावरण का निर्माण करती है और अंतत: सर्वनाश का ही सबब बनती है। हमें भगवान श्रीकृष्ण का गीता में कथित यह संदेश कभी विस्मृत नहीं करना चाहिए कि हे अर्जुन! तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, फल में नहीं। इसलिए तू कमरें को करने पर ध्यान दे, फल पाने की चिंता में उलझा मत रह। इसलिए हमारे लिए यह जरूरी है कि हमें किसी भी दशा में निरंतर प्रयास करने के बाद भी यदि वांछित सफलता न मिले, तो उदास और निराश नहीं होना है। 

Updated : 6 Nov 2014 12:00 AM GMT
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