जनमानस
जब शाह नहीं तो शाही क्यों
अपने विवादित बयानों से सुर्खियों में आने वाला तथा अपने फतवों से देश के मुसलमानों को समय-समय पर बरगला कर देश के लोकतंत्र को आघात पहुंचाने वाला जामा मस्जिद का शाही इमाम सैयद बुखारी को कौन नहीं जानता।देश की जनता ने ऐसे धर्म गुरुओं और राजनेताओं को आज अच्छी तरह समझ लिया है। ऐसे ही लोगों के, तुष्टिकरण की नीतियों के पाप को देश ने लम्बे समय तक झेला है। परिणाम स्पष्ट है, ऐसे धर्मगुरुओं के राजनीतिक संरक्षकों को देश की जनता ने सिरे से खारिज कर दिया है। ऐसे में औंधे मुंह गिरे बुखारी ने एक और नई शैतानी चाल चली है। उसने अपने बेटे के दस्तारबंदी के बहाने देश के कट्टरवादी मुसलमानों को फिर अपनी ओर आकृष्ट करने का कुप्रयास किया है। अपने बेटे की दस्तारबंदी में अपने ही देश के प्रधानमंत्री को आमंत्रित न कर उसने जिस तरह कुख्यात आतंकी देश पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को बुलाया है तथा उसने जिस तरह भारत के एक ऐसे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ नापाक बयानबाजी करते नहीं थक रहा जिनके सुविचारों का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है। निश्चित ही यह बुखारी की आंतरिक बौखलाहट है। ऐसी बौखलाहट में आदमी कुछ भी कर सकता है। ऐसे लोगों से हमें सतर्क रहना चाहिए।
आज हमें यह समझने की अधिक जरुरत है कि हमने किस तरह शहंशाही और शाही परंपराओं को तोड़ कर एक पवित्र लोकतंत्र की यहां स्थापना की है। लेकिन यह कितने आश्चर्य की बात है कि जब इस देश से सारे शाह और शहंशाह बिदा हो चुके हैं तो इस बुखारी ने अपने नाम के साथ यह शाही का दुम क्यों लगा रखा है। इस दुम को उखाड़े बिना हमारे लोकतंत्र की पूर्ण सार्थकता संभव नहीं। हमारे सरकारी कानून में शायद इसे हटाने का कोई कानून नहीं है अत: देश के नागरिकों का यह परम कर्तव्य बनता है कि कुछ ऐसे कानून बनाने को सरकार पर दबाव डालें जिससे इस तरह के अलोकतांत्रिक शब्द नाम के साथ से हटाया जा सके।
प्रवीण प्रजापति, ग्वालियर