ज्योतिर्गमय
साधना
साधन से निकला साधना शब्द अति महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार कोई मानव जीवन-निर्वाह के लिए भौतिक सामग्रियों का प्रबंध करता है और आवश्यकताओं के अनुकूल उनका सदुपयोग करता है, उसी प्रकार भावनाओं व विचारों का सही उपयोग कर और उन्हें साधकर साधना में लीन हुआ जा सकता है। एक अच्छे विचार पर मंथन करने से आध्यात्मिक शक्तियों का विकास होता है। संसार का प्रत्येक मनुष्य आध्यात्मिक संभावना से युक्त है। इसके बावजूद आध्यात्मिकता में हरेक मनुष्य लीन नहीं हो पाता। सच्चे साधक ही अध्यात्म की धारा के प्रवाह में बह पाते हैं। अपने अंतर्मन में अच्छे विचारों व भावों की संरचना कर और उन्हें ध्यान द्वारा साधकर व्यक्तित्व निर्माण के लक्ष्यों को निर्धारित करना जीवन की सार्थकता है। साधना से चित्त की चंचलता पर विराम लगता है। भावनाओं का विभाजन नहीं होता। विचारों का आवागमन ध्यान के प्रकाश में स्पष्ट दिखाई देने लगता है। अच्छे विचारों को पिरोकर उन्हें सुरक्षित रखने के लिए हृदय में भावनाओं के कक्ष स्थापित होते हैं। भावनाओं के कक्ष में सुसज्जित विचार हमें प्रतिकूल समय में हमें आध्यात्मिक सहारा देते हैं। साधना की प्रवृत्ति व्यक्ति को स्वयं से रचनात्मक रूप से जोड़ती है। साधना-पथ पर निरंतर अग्रसर रहने वाले जीवन-जगत का नव-साक्षात्कार करते हैं। उनमें अपने बारे में प्रतिक्षण नई अनुभूतियां उपजती हैं।
सांसारिक धरातल पर अपने व्यक्तित्व की पूर्ण पहचान करने के लिए साधना से अच्छा दूसरा कोई उपाय नहीं है। साधक को साधना के दौरान दुनिया का विचार स्वप्न समान लगने लगता है। उसे अपने अंतस में संसार नियंता के प्रभाव में आने के संकेत मिलने लगते हैं। महात्मा बुद्ध ने भी निरूपम साधना से ही आत्मज्ञान प्राप्त किया और जीवन के चार महान सत्य तलाशे। ये सत्य हैं-पहला, दुख अस्तित्व का अंतर्निहित भाग है। दूसरा, दुख की उत्पत्ति अज्ञान से होती है। तीसरा, अज्ञान का मुख्य लक्षण लालसा या लगाव है। चौथा, लगाव या लालसा पर प्रतिबंध आवश्यक है। बुद्ध ने माया-मोह के इस जंजाल से मुक्ति पाने के लिए अष्टगुणों का बखान किया था। इन अष्टगुणों में-समुचित समझ, भाषण, कार्यवाही, जीवनचर्या, प्रयास, मस्तिष्क दशा, संकेंद्रण और परस्पर निर्भरता को शामिल किया गया है।