अग्रलेख

कांग्रेस का असाध्य रोग, नेहरू-गांधी परिवार भक्ति

  • राजनाथ सिंह 'सूर्य'

कांग्रेस पार्टी में प्रमुख हैसियत रखने वाले पूर्व वित मंत्री पी. चिदम्बरम ने कहा है कि ''नेहरू-गांधी'' के अलावा भी कोई पार्टी अध्यक्ष हो सकता है। सोनिया गांधी पिछले डेढ़ दशक से कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन हैं। जब से प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन को हटाकर पार्टी के अध्यक्ष का पद संभाला तब से केवल एक बार-नरसिंह राव-को छोड़ दे तो परिवार का ही कोई सदस्य अध्यक्ष होता रहा है या फिर उसकी कठपुतली को यह दायित्व मिलता रहा है। लेकिन परिवार का भी कोई सदस्य इतने लंबे समय तक पार्टी का अध्यक्ष वह भी लगातार नहीं रहा है जितने समय से सोनिया गांधी इस पद पर विराजमान हैं। उन्होंने जब अपने महामंत्री पुत्र राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया तब यह बात बहुत स्पष्ट हो गई थी कि अगले कुछ वर्ष में वही पार्टी के अध्यक्ष बनेंगे। लेकिन राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने के बाद से एक के बाद एक चुनावी पराजय उनके अध्यक्ष बनने की औपचारिकता पूरी करने में बाधक बनती रही। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अभूतपूर्व पराजय के पूर्व पार्टी के कुछ नेता व्यक्तिगत वार्ता में राहुल गांधी की क्षमता पर संदेह व्यक्त किया करते थे, लेकिन उस ऐतिहासिक पराजय के बाद खुलकर कुछ लोग मैदान में आ गए थे और महाराष्ट्र तथा हरियाणा जहां कांग्रेसी शासन था पार्टी के तीसरे स्थान पर खिसक जाने के बाद कांग्रेस के भीतर बड़े पैमाने पर अनुभव किया जा रहा है कि नेतृत्व के पारिवारिक प्रभुत्व से बाहर निकले बिना पुनरपि हो पाना संभव नहीं है। पी. चिदम्बरम भी जिन्होंने लोकसभा चुनाव के पूर्व ही हवा का रूख भांप लिया था और मैदान में उतरने से इंकार कर दिया था, अब परिवार के बाहर पार्टी अध्यक्ष पद जाने का जो सोशा छोड़ा है, उससे आम कांग्रेसी असहमत नहीं होगा, लेकिन ठकुर सुहाती की अभ्यस्त पार्टी में जहां राहुल गांधी को पूर्व कमान सौंप देने की अभिव्यक्ति हो गई है, वहीं कुछ लोग प्रियंका वाड्रा के आकर्षक व्यक्तित्व का सहारा लेने की भी सलाह दे रहे हैं क्योंकि उनमें ''इंदिरा गांधी की झलक दिखाई पड़ती है। यह भी कहा जा रहा है कि स्वास्थ्य खराबी के कारण सोनिया गांधी के लिए अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी का निर्वाह करना कठिन हो रहा है।
लोकसभा चुनाव में पराजय की समीक्षा करने के लिए पार्टी ने ए.के. एंटोनी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी, लेकिन न कोई समीक्षा हुई और न भविष्य की रणनीति तय हुई। हुआ तो बस इतना कि राज्यों में पराजय के लिए वहां के मुख्यमंत्रियों को जिम्मेदार मानकर हटाने की जो आवाज उठी थी, उसे अनसुना कर दिया गया जिसका परिणाम उसे महाराष्ट्र और हरियाणा में भुगतना पड़ा और अब जम्मू-कश्मीर तथा असम में भी भुगतना पड़ेगा। मुख्यमंत्रियों को जिम्मेदार मानकर कांग्रेस इसलिए नहीं हटा सकी क्योंकि ऐसा करने पर सोनिया गांधी और राहुल जो कि पार्टी के स्टार प्रचारक थे-के नेतृत्व पर भी सवाल उठ खड़ा होता। कांग्रेस ने जिस तरह से महाराष्ट्र और हरियाणा का चुनाव लड़ा है उससे ऐसा लगता है कि उसमें भारी ''डिप्रेशन आ गया है ऐसा डिप्रेशन जिससे उबर पाने में कोई भी औषधि कारगर साबित नहीं होती। राजनीतिक दलों के जीवन काल में कई बार चढ़ाव उतार होता रहता है। कांग्रेस भी इस दौर से गुजर चुकी है। आज की एक मात्र सार्वदेशिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी भी इस दौर से गुजरकर आज पूर्ण बहुमत के साथ केंद्रीय सत्ता पर काबिज है और एक के बाद एक राज्यों को विजित करती जा रही है। लेकिन कांग्रेस में आज जैसा ''डिप्रेशन'' है उससे उसके पुन: उबरने की संभावना बहुत कम है। इसका शायद सबसे बड़ा कारण है उसकी नेहरू गांधी परिवार पर निर्भरता। कांग्रेस की स्थिति उस नशे के लतखोर जैसी हो गई है जो अंग प्रत्यंग क्षत्रिग्रस्त हो जाने के बावजूद डाक्टर की चेतावनी की अनदेखी करता है मित्रों के परामर्श की उपेक्षा करता है और परिवार के सदस्यों की अनुनय विनय की भावना अपनी हेटी समझता है। लतखोर नशेड़ी के समान ही कांग्रेसी नेहरू गांधी परिवार का ''एडिक्ट'' हो चुका है। इस एडिक्शना की पैठ इतनी गहरी है कि हर समीक्षा के बाद ''जैसे उडि़ जहाज को पंक्षी पुनि जहाज पर आवै वैसे ही कांग्रेस में प्रत्यक्ष पराजय के बाद नेहरू गांधी परिवार के प्रति निष्ठा और भी ठोस होती जाती है। इसलिए पी. चिदंबरम का यह परामर्श कि पार्टी अध्यक्ष पद के लिए गांधी परिवार के बाहर भी देखना चाहिए कुछ हलचल समीक्षकों में भले ही हो, कांग्रेस में यह या इसी प्रकार के स्वर कुछ उसी तरह एक बार फिर बैठ जायेंगे जैसे राख भरी हांडी में पानी डालने पर राख बैठ जाती है।
कांग्रेस में आज भी यही विश्वास है कि सोनिया, राहुल या प्रियंका गांधी ही विभिन्न तरीके से उसकी नौका डूबो रहे हैं, और अब भ्रष्टाचार के ऐसे आरोप के घेरे में आते जा रहे हैं जो उन्हें जयललिता या लालू प्रसाद यादव की स्थिति में ला देगा, ही उसे किनारे पर पहुंचा सकते हैं। यह संभव है कि अतीत की भांति कुछ कांग्रेसजन पार्टी से अलग हो जायें लेकिन कांग्रेस का संचालन सूत्र परिवार से अलग हो सकेगा इसके कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। लोकसभा चुनाव के बाद सोनिया गांधी इलाज के लिए विदेश चली गई थी और राहुल गांधी थकान उतारने के लिए विधान सभायी पराजय के बाद दोनों ही अज्ञातवास में चले गए हैं और संभव है कि जम्मू कश्मीर तथा झारखंड में वे महाराष्ट्र तथा हरियाणा के समान प्रचार की औपचारिकता निभाते ही न दिखाई पड़ें लेकिन इनके इर्द-गिर्द एक ऐसा मंडल जरूर है जो उन्हें महिमा मंडित करता रहेगा ताकि नेतृत्व परिवार से बाहर न जा सके। यह इस बात से स्पष्ट है कि एक युवा मंडली को राहुल का माहौल बनाने के लिए मैदान में उतार दिया गया है जो राहुल के रास्ते पर चलकर कांग्रेस का फिर से दबदबा बनाये जाने के पक्ष में-विपक्ष में बोलने वालों को जवाब देने के लिए-हर हमले के बाद टूट पड़ती है। चिदंबरम की अभिव्यक्ति पर भी उसने ऐसा ही किया है। क्या कांग्रेस में यह सोच उभर सकेगी कि पार्टी को जिस स्थान पर नरसिंह राव छोड़ गए थे, उससे भी नीचे वह लगातार क्यों चली जा रही है। जोड़-तोड़ या गठबंधन से केंद्र में दस वर्ष तथा कई राज्यों में एक दशक तक सत्ता में रहने के बावजूद अब वह अनेक राज्यों में दूसरे क्रम की भी पार्टी नहीं रह गई है। देश के कई बड़े राज्यों यथा बिहार, उत्तर प्रदेश, तामिलनाडु में तो उसका अस्तित्व भी बढऩा मुश्किल हो रहा है। जिस प्रकार भारतीय गणराज्य में विलीन हो जाने के बावजूद देसी राजाओं की आज भी राजा साहब सुनने की आदत में कोई बदलाव नहीं आया है, वैसी ही स्थिति कांग्रेस नेतृत्व की है। एक के बाद एक किला ध्वस्त होते जाने के बावजूद उसमें नेतृत्व प्रदान करने का दर्प और सेना में उन्हीं से उद्धार की आकांक्षा एक असाध्य रोग बन चुकी है जो उसे और भी नीचे ले जाने का कारण बन गई है। जिसे शल्यक्रिया की असाध्य रोगों में प्रारम्भिक आवश्यकता होती है, रोग उससे बहुत आगे बढ़ चुका है।

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