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ज्योतिर्गमय

जीवन की राह


मनुष्य जीने के लिए प्रतिबद्ध है, आतुर है। यद्यपि जो पैदा हुआ है, वह मृत्यु को अवश्य प्राप्त होगा, परंतु कोई मरना नहीं चाहता। जीने के लिए मनुष्य क्या नहीं करता है और क्या नहीं सहता है। ऐसे संघर्ष करते हुए ही वह जीवन में प्रेम और श्रेय का हकदार होता है। वेदों में वर्णित है कि देवता कर्मशील को ही चाहते हैं, स्वप्नशील अकर्मण्य को नहीं। संपदाएं प्रमाद रहित कर्म करने वाले के ही पास जाती हैं। श्री कृष्ण गीता में संघर्ष से मुंह चुराने वाले को कायर और अपयश का पात्र बताते हैं। ईशोपनिषद् के अनुसार कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए। कर्म ही जीवन है, अकर्मण्यता मृत्यु है। मनुष्य के कर्म करते रहने में ही उसके, उसके परिवार और राष्ट्र का भला निहित है। सबकी भलाई के लिए कर्म करते हुए जीना ही जीने की उत्तम राह बताई गई है। वैसे कर्म तीन प्रकार के बताए गए हैं-सात्विक कर्म राजस और तामस। सात्विक कर्म, वे हैं जो आपके दायित्व हैं, कर्तव्य हैं, जिनसे सभी का भला होता है। जो नि:स्वार्थ भाव से और अहंकाररहित होकर किए जाते हैं। राजस कर्म वे कर्म हैं, जिनसे अपना लाभ हो, परंतु दूसरे की हानि न हो और जिनके करने में दंभ भी हो। तामस कर्म, वे कर्म है जो विवेकहीनतापूर्वक, नृशंसतापूर्वक दूसरों को क्षति पहुंचाने और समाज में अव्यवस्था फैलाने के लिये किये जाते हैं।
मनुष्य को उपर्युक्त कर्मो को समझकर केवल सात्विक कर्म करने की इच्छा करनी चाहिए। उसी में उसके जीवन की सार्थकता निहित है और इसी के माध्यम से उसे आनंद की प्राप्ति भी होती है। सबके कल्याण का चिंतन कर कर्म करता हुआ मनुष्य, धन-वैभव और यश को प्राप्त करता है। आज तक किसी भी ऐसे व्यक्ति के जीवन को न ही सराहा गया और न सफल कहा गया जो मात्र अपने स्वार्थ के लिए जिया या जिसने जीवन में दूसरों को क्षति पहुंचाई हो। ईशोपनिषद का पहला मंत्र आदि काल से हमें जीवन की राह दिखा रहा है। उसके अनुसार सभी में परमात्मा का वास है। इसलिए किसी को दुख मत पहुंचाओ और तुम्हारे पास जो भी है, उसे दूसरों को देते हुए और बांटते हुए मिलजुल कर भोग करो। दूसरे के धन, स्त्री, वैभव आदि से ईष्र्या मत करो। यह धन आज तुम्हारे पास है या दूसरे के पास है, वह सदा नहीं रहने वाला है। 

Updated : 22 Oct 2014 12:00 AM GMT
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