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ज्योतिर्गमय

भ्रांतियों की जननी है बहिर्मुखता



ध्यान का अर्थ है- चित्त को भीतर लाना। अध्यात्म का अर्थ है- अंतर्मुखी बनना।
ऐसी स्थिति में चित्त को एकाग्र बनाने के लिए कोई उपाय न करना साधना के पथ में भटकना है, क्योंकि एकाग्रता और निर्मलता के बिना साधना का विकास नहीं हो सकता। मनुष्य की वृत्तियां दो प्रकार की होती हैं- बाह्य और आंतरिक।
इसे यूं भी कहा जा सकता है कि वृत्तियों के आधार पर मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- बहिर्मुखी और अंतर्मुखी। बहिर्मुखता
स्वाभाविक है और अंतर्मुखता साधना-सापेक्ष है। बहिमरुख बनने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता, जबकि अंतर्मुखता के लिए तीव्र प्रयत्न की अपेक्षा रहती है। प्रत्येक आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए अंतर्मुखी होना बहुत जरूरी है, पर ऐसा होना बहुत कठिन है।
मनुष्य की इंद्रियां और मन बार-बार बाहर की ओर दौड़ते हैं। बाहर की ओर उनकी दौड़धूप इतनी तीव्र होती है कि उन्हें भीतर मुड़कर देखने का अवकाश ही नहीं रहता। उन्हें भीतर रखने का जितना प्रयत्न किया जाता है, उनकी चंचलता उतनी ही बढ़ती जाती है। जब तक चंचलता कम नहीं होती, अंतर्मुखता नहीं आ सकती।
जब तक अंतर्मुखता नहीं आती है, व्यक्ति को जानकारी नहीं हो सकती कि उसके भीतर क्या है? इस जानकारी के अभाव में वह इस सचाई का भी अनुभव नहीं कर सकता कि बहिर्मुखता के कारण उसकी शक्तियों का जागरण नहीं हो रहा है। बहिर्मुखता भ्रांतियों की जननी है। भ्रांत व्यक्ति सत्य को असत्य मानता है और असत्य को सत्य. उसे पदार्थ-जगत में सुख और सार का अनुभव होता है।
इंद्रिय-विषयों के सुख को वह अपनी अंतिम मंजिल मानकर चलता है. उसका सारा आकषर्ण बाह्य संसार में सिमट जाता है। यह स्थिति तब तक रहती है, जब तक उसकी भ्रांतियां नहीं टूटतीं। भ्रांति तोडऩे का एक ही रास्ता है, वह है अंतर्यात्रा का। इससे चित्त भीतर लौटता है, प्रशांत बनता है और विचारों के द्वंद्व से मुक्त होता है।
जैसे दिन भर का थका हुआ आदमी घर पहुंचकर थकान दूर करता है, वैसे ही भ्रांतियों में उलझा हुआ चित्त केंद्रित होकर स्वस्थ बनता है. जब तक भ्रांतियों का घेरा दृढ़ है, तक तक जिस सुख और शांति का अनुभव करता है, वह उसका भ्रम ही है। 

Updated : 9 Jan 2014 12:00 AM GMT
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