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ज्योतिर्गमय

स्वाध्याय हो जीवन का लक्ष्य


मनव जीवन बड़े पुण्यकर्मों से मिलता है। इसे यूं ही नहीं गंवा देना चाहिए। इसे सुंदर बनाने के लिए सत्कर्म और स्वाध्याय परम आवश्यक है। स्वाध्याय का तात्पर्य अच्छे-अच्छे ग्रंथों का अध्ययन करना तो है ही अपना अध्ययन करना भी है। इसे आत्मनिरीक्षण की घड़ी भी कह सकते हैं। जब तक मनुष्य आत्मनिरीक्षण या आत्म विश्लेषण नहीं करता तब तक वह प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता। ईश्वर प्राप्ति के लिए ईष्र्या द्वेष आदि कुटिल भावनाओं का त्याग नितांत आवश्यक है। ईष्र्या एक प्रकार की आग है लेकिन यह ऐसी आग है जो दिखाई नहीं देती जिसका धुआं भी दिखाई नहीं देता। जो आग दिखाई देती है उसको बुझाना सरल है लेकिन जो दिखाई नहीं देता।
उस ईष्र्या रूपी आग को किस प्रकार बुझाया जाए यह बहुत विकट प्रश्न है। इसके लिए प्राणिमात्र के प्रति सौहार्द, प्रेम, जन कल्याण की भावना पैदा करनी होगी। दुख का सबसे बड़ा कारण यह है कि मनुष्य अपने घर को देखकर उतना प्रसन्न नहीं होता, जितना दूसरों के घर को जलते देख प्रसन्न होता है। यही ईष्र्या है। जहां ईष्र्या का निवास है वहां ईश्वर भक्ति नहीं पनप सकती।
जीवन का उद्देश्य नहीं है, केवल खाना-पीना।
जीवन का उद्देश्य है जग में, जगना और जगाना।
जगने और जगाने का मतलब है संसार के लोगों को ईश्वरोन्मुख करना। यह कार्य वही कर सकता है जिसे ब्रम्ह की अनुभूति हो और जिसमें सेवा समर्पण और परोपकार का भाव हो-
खुद कमाओ, खुद खाओ- यह मानव की प्रकृति है।
कमाओ नहीं, छीनकर खाओ- यह मानव की विकृति है।
खुद कमाओ, दूसरों को खिलाओ- यही हमारी संस्कृति है।
मानव जीवन की सफलता के लिए समय का सदुपयोग करें। दौलत से रोटी मिल सकती है पर भूख नहीं। दौलत से बिस्तर मिल सकते हैं, पर नींद नहीं। दौलत से गीता की पुस्तक मिल सकती है पर ज्ञान नहीं। दौलत से मंदिर मिल सकता है पर भगवान नहीं। आश्चर्य की बात है कि रुपए बर्बाद होने पर आज के मनुष्य को उसका दुख तो होता है। परंतु व्यर्थ ही इधर-उधर की बातों में समय को बर्बाद करने पर उसको दुख क्यों नहीं होता?म

Updated : 6 Jan 2014 12:00 AM GMT
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