ज्योतिर्गमय

शरीर पर नियंत्रण अनिवार्य

कोई भी साधना-पद्धति एकांगी नहीं हो सकती। उसमें शरीर, मन और आत्मा- तीनों को साधने के उपक्रम बताए जाते हैं।
क्योंकि तीनों परस्पर संबद्ध हैं और एक-दूसरे के प्रभाव से प्रभावित होते हैं। प्रेक्षाध्यान की साधना में तीन गुप्तियों का महत्वपूर्ण स्थान है। इनमें सबसे पहली है-कायगुप्ति। कायगुप्ति अर्थात शरीर का गोपन करना, शरीर को साधना, शरीर पर नियंत्रण करने की क्षमता अर्जित करना। शरीर को साधे बिना वचन और मन को साधना कठिन है. क्योंकि शरीर इनमें सबसे अधिक स्थूल है। जो स्थूल है, वह सरलता से पकड़ में आ सकता। आसन भी कायगुप्ति का ही एक प्रकार है।
ध्यान के समय किस आसन पर बैठना चाहिए, यह एक प्रश्न है। इस संबंध में हमारा कोई आग्रह नहीं है. जो साधक जिस समय, जिस आसन में सुखपूर्वक और सरलता से बैठ सके, उसके लिए वही आसन उपयुक्त है। फिर भी इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि आसनों के नियमित और व्यवस्थित प्रयोग में जो निष्णात हो जाते हैं, उन्हें ध्यान करने में सुविधा रहती है। इस दृष्टि से ध्यान के लिए दो चार आसन सुझाए जा सकते हैं। ध्यान के लिए तो आसन किए ही जाते हैं, उसके अतिरिक्त शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी योगासन किए जाते हैं।
आलस्य और अतिश्रम- ये दोनों स्थितियां ऐसी हैं जिनमें शरीर-तंत्र अव्यवस्थित हो सकता है। इस अव्यवस्था को रोकने के लिए साधक को आसन-योग का प्रशिक्षण मिलता है। प्रेक्षाध्यान की पद्धति में आसनों का एक निश्चित क्रम है। इनके समुचित प्रयोग से ऊर्जा संतुलित होती है, शरीर में हल्कापन आता है, स्फूर्ति और दीप्ति बढ़ती है और स्नायविक दृढ़ता बढ़ती है।
आसन योग का एक अंग है. हठयोग का यह प्रमुख अंग है। किंतु समूचा योग इस एक क्रिया में अंतर्गर्भित नहीं हो सकता। योग के आचार्य ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है। यद्यपि आज आसनों के लिए योग शब्द का प्रयोग प्रचलित हो गया है, पर वह योग की पूर्णता नहीं है। आसन, ध्यान, तप आदि विविध क्रियाओं का एक व्यवस्थित क्रम है, जिससे होकर योग के साधकों को गुजरना होता है।

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