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ज्योतिर्गमय

शंका की बीमारी

हम कितनी सारी चीजें सीखते हैं पर हमने यह नहीं सीखा की मन की पीड़ा से कैसे बचें। हम छोटी सी बात का बतंगड़ बनाते हैं।
दूसरों के बोले हुए दो-चार शब्दों को इधर-उधर खींचते रहते हैं। क्या आपकी जिंदगी का इससे ज्यादा कोई महत्व नहीं है? क्यों आप अपनी प्रशंसा नहीं करते? क्यों आप अपने आप को दैवी तत्व का अंश नहीं समझते? आप दैवी तत्व में जुडऩा चाहते हैं। आप खुद ही दैवी तत्व हैं।
आपको दैवी तत्व से कोई अलग नहीं कर सकता। जरा जागिये और देखें- भगवान कोई मंदिर-मस्जिद में नहीं है, वह तुम्हारे दिल में छिपा बैठा है। हम जरा आंख खोलकर, भाव से जीना सीखें. कोई हमें बुरी बात कहें, हम उसे वहीं छोड़ दें, उससे अलग हो जाएं।
ये बात जिंदगी को अलग दृष्टिकोण देगी। सहजता में आ जाएं, थोड़ी ही देर के लिए ही सही. इस सहजता में जीना ही सत्संग है। पोथी से पढ़-पढ़कर भूतकाल की गौरवपूर्ण बातें करना तो सत्संग नहीं हुआ।
हम भूतकाल की बातें करते रहते हैं. पर अपने वर्तमान क्षण देख ही नहीं सकते। सादगी से व्यवहार करें। शब्द को ज्यादा महत्व नहीं देना है। बच्चा ज्यादा परेशान करता है तो मां गुस्से में कह देती है- 'कहीं जाके मर जा, मैं तो तंग आ गई पर वह सचमुच तो ऐसा नहीं चाहती। आप अगर व्यक्ति के शब्दों के भीतर की गहराई, सच्चाई को नहीं जान सकते, भीतर की भावना को नहीं पकड़ सकते, तो आपकी जिंदगी, आपके विचार खोखले हैं।
कहे हुए शब्दों को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए। शब्दों के पार देखो। शब्दों से पैदा नकारात्मकता पर शंका क्यों? कोई आपसे अच्छा बर्ताव नहीं करता, आप उस पर शंकित नहीं होते। कोई अच्छी तरह पेश आता है तो मन में संशय बना रहता है कि क्या सचमुच वह अच्छा है?
यानी खुद पर संशय, दूसरों पर संशय, भगवान पर संशय, भगवान के अस्तित्व पर संशय। हमें भगवान पर भी शंका रहती है कि सचमुच हमारे ऊपर कोई शक्ति है कि नहीं? जो व्यक्ति दैवी शक्ति पर शंका करते हैं, वे दूसरों पर भी शंका करते हैं, विश्वास नहीं रखते और धीरे-धीरे अपने में से विश्वास, आत्मविश्वास गंवाकर खुद पर भी शंका करने लगते हैं। यह तो एक तरह की बीमारी है।

Updated : 28 Jan 2014 12:00 AM GMT
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