ज्योतिर्गमय
कर्तव्य पालन क्यों
मनुष्य और पशु में एक मौलिक अन्तर यह है कि मनुष्य में बोध होता है, जबकि पशु में नहीं। वैसे तो ज्ञान पशु को भी होता है, पर ज्ञान और बोध में अन्तर है। एक पश्चिमी विद्वान ने पशु और मनुष्य का अन्तर बताते हुए कहा है पशु भी जानता है और मनुष्य भी जानता है, जबकि मनुष्य यह जानता है कि वह जानता है। अर्थात् मनुष्य को अपने ज्ञान का बोध होता है, जबकि पशु को ऐसा नहीं होता। मनुष्य की यही क्षमता उसको पशु से भिन्न करती है एक संस्कृत सुभाषित में मनुष्य और पशु के इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-
आहारनिद्राभय मैथुनश्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम।
एको हि तेषां धर्मो विशेष: तेनैव हीना: पशुभि: समाना:॥
भोजन, नींद, भय और प्रजनन की प्रवृत्ति - ये पशुओं और मनुष्यों में समान रूप से पाई जाती हैं। एक धर्म का तत्व मनुष्यों में अधिक होता है, वह यदि मनुष्य में न हो, तो वह पशु के ही समान है।
इस सुभाषित में धर्म को मनुष्य और पशु में अन्तर करने वाला तत्व बतलाया गया। इसी धर्म को हमने पूर्व में बोध कहा है। इसको कर्तव्य-बोध भी कहते हैं। अर्थात् धर्म वह है, जो मनुष्य में कर्तव्य-बोध भरता है। पशु में कोई कर्तव्य-बोध नहीं होता है। एक स्वामिभक्त कुत्ता जब अपने स्वामी की रक्षा करने के लिए चोर पर झपट पड़ता है, तो वह कर्तव्य-बोध से प्रेरित होकर ऐसा नहीं करता, अपितु अपनी सहज प्रेरणा से परिचालित हो ऐसा करता है, कर्तव्य-बोध की क्षमता मनुष्य में ही होती है। इसीलिए वह पुरस्कार पाने का भी अधिकारी होता है और दण्ड पाने का भी। पर कभी किसी ने अपने मालिक को बचाने वाले कुत्ते को पुरस्कार देकर सम्मानित नहीं किया।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि हमें अपने कर्तव्य का पालन क्यों करना चाहिए। इसलिए करना चाहिए कि यही मनुष्य की मनुष्यता को उजागर करता है। वैसे तो पशु-भाव केवल पशु का ही गुण नहीं, वह मनुष्य में भी भरा होता है, पर मानव जीवन की सार्थकता इसमें है कि अपने भीतर का पशु-भाव दूर कर मानवता को जगाया जाय। इस प्रक्रिया में, एक सक्षम साधन के रूप में कर्तव्यबोध ही सामने आता हैं, जिसे पूर्व में कहे गये सुभाषित में धर्म कहकर पुकारा गया है।
अपने स्वार्थ के लिए जीना पशुता है और दूसरों के लिए जीने की चेष्टा करना मनुष्यता की अभिव्यक्ति है। यदि मनुष्य भी केवल अपने लिए जिए, तो उसमें और पशु में कोई अंतर नहीं। कर्तव्यबोध हमें दूसरों के लिए जीना सिखाता है। अधिकार- बोध यदि स्वार्थ का द्योतक है, तो कर्तव्यबोध नि:स्वार्थता का। स्वामी विवेकानन्द स्वार्थ को अनैतिक और स्वार्थहीनता को नैतिक बनाते हैं। वे कहते हैं- नि:स्वार्थता ही धर्म की कसौटी है। जो जितना ही अधिक नि:स्वार्थी है, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक और शिव के समीप है। और वह यदि स्वार्थी है, तो उसने चाहे सभी मन्दिरों में दर्शन किये हों, चाहे सभी तीर्थों का भ्रमण किया हो चाहे उसने अपने शरीर को चीते के समान रंग लिया हो, तो भी वह शिव से बहुत दूर है।
यह कर्तव्य-पालन का तात्विक आधार है।
फिर, हमें इसलिए भी अपना कर्तव्य का पालन करना चाहिए कि उससे परिवार, समाज और देश टूटकर बिखरने से बचता है। कल्पना करें कि पिता, माता, सन्तान, शिक्षक, छात्र, अधिकार, कर्मचारी, व्यवसायी, किसान, मजदूर - सब अपने-अपने कर्तव्यों से कतराने लगें, तो कैसी विशृंखला की सृष्टि होगी, उसका सहज ही अनुमान किया जा सकता है। मैं यदि अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, तो मुझे किसी से कहने का अधिकार नहीं है कि तुम अपने कर्तव्य का पालन क्यों नहीं कर रहे हो? यदि मैं अपनी पत्नी के प्रति पति के कर्तव्य का पालन नहीं करता, तो मैं यह कहने का अधिकारी नहीं कि पत्नी अपना कर्तव्य निभाए। सारांश यह कि कर्तव्य-बोध ही जीवन की धुरी है। वह हमारी मनुष्यता को प्रकट कर हमें सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाता है जिस परिवार, जिस समाज और जिस देश में जितनी संख्या में ऐसे कर्तव्य-बोध से पूर्ण मनुष्य होते हैं, वह परिवार, वह समाज और वह देश उतनी ही मात्रा मेें बलवान सम्पन्न और सुदृढ़ होता है।