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ज्योतिर्गमय

शरीर नौका है, जीव नाविक

साधना के उपक्रम में शरीर का बहुत महत्व है। जिस प्रकार सोपान पर चले बिना ऊपर की मंजिल में जाना असंभव है।
उसी प्रकार शरीर को साधे बिना आत्म-साधना संभव नहीं है। तर्क हो सकता है कि लिफ्ट मिल जाए तो सोपान का क्या करना है? सीधी छलांग भरी जा सकती है। पर यह भी तो सोचने की बात है कि लिफ्ट किसे-किसे उपलब्ध होती है? वह उपलब्ध हो भी जाए और बीच में ही बिजली चली जाए तो त्रिशंकु बनकर रहना पड़ता है।
इसी प्रकार आत्म-साक्षात्कार का सीधा रास्ता भी किसी-किसी को मिल सकता है, पर बीच में कोई अवरोध उपस्थित होने पर उसे तोडऩे के लिए कौन आएगा? बाहुबली सीधा आत्म-साक्षात्कार करना चाहते थे। उनकी साधना भी विशिष्ट थी. किंतु अवरोध ऐसा आया कि तट तक पहुंचकर भी वे आगे नहीं बढ़ सके। बाहुबली ने अवरोध का कारण समझा। वे संभले और अवरोध समाप्त हो गया। कैवल्य की ज्योति से उनका कण-कण आलोकित हो उठा। इसलिए एक निश्चित विधि और प्रक्रिया के सहारे ही साधक को आगे बढऩा चाहिए।
यद्यपि शरीर के बारे में कुछ अटपटी मान्यताएं भी हैं। कुछ लोगों के अनुसार शरीर अशुद्ध है, अपवित्र है, विकृति करने वाला है। उसमें कोई सार तत्व नहीं है, इसलिए वह त्याज्य है। किंतु यह ऐकांतिक आग्रह है। वस्तुस्थिति यह है कि शरीर एक साधन है। उसका उपयोग इष्ट और अनिष्ट दोनों प्रकार से किया जा सकता है। भगवान महावीर ने शरीर की तुलना नौका से की है- शरीर नौका है। जीव नाविक है। संसार समुद्र है।
महान् लक्ष्य-मोक्ष की एषणा करने वाले इस समुद्र को उसके द्वारा पार कर लेते हैं. जिस प्रकार काष्ठमयी नौका समुद्र-संतरण में उपयोगी है, वैसे ही संसार-समुद्र को पार करने के लिए शरीर-रूपी नौका का आलंबन जरूरी है। क्योंकि सब प्रकार की साधना शरीर से ही हो सकती है। प्रश्न है दोहन करने का। दोहन करने की कला से जो परिचित है, वह शरीर के द्वारा विशिष्ट शक्ति का दोहन कर उसका उपयोग कर सकता है। शक्ति की पहचान कर उसका दोहन करने वाला व्यक्ति साधना-क्षेत्र में बहुत ऊंचाई तक पहुंच सकता है। 

Updated : 15 Jan 2014 12:00 AM GMT
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