अग्रलेख

मन मधुवन में मधुवातायन
- हृदयनारायण दीक्षित
'माया बड़ी प्यारी और न्यारी। कबीर ने इसे 'महाठगिनी गाया था। कबीर आत्मजाग्रत थे। वे माया का कौशल देख चुके थे। उन्हें सुविधा थी। लेकिन दुविधा वाले क्या करें? इस चक्कर में फंसे मन की पुकार लोक कहावत बनी है - दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम। लेकिन माया मिलती ही किसे है? मिलती ही होती तो माया न होती। माया मन का आभास है। भौतिकवाद में संसार प्रत्यक्ष है लेकिन शंकर के वेदान्त में ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है। यहां मिथ्या का अर्थ झूठ नहीं है। सत्य का अभास है। यूनान के कुछेक दार्शनिक भी संसार को किसी सत्य की छाया मानते थे। हम आंख, कान, नाक आदि इन्द्रियों से संसार समझते देखते हैं। संसार की समझ हमारे इन्द्रियबोध का परिणाम है। इन्द्रियबोध की कार्रवाई में मन मध्यस्थ है। मन गतिशील है। गतिशील मध्यस्थ की अपनी चंचल वृत्ति भी है। सुनते हैं कि बसंत में कामदेव अग्निवाण चलाते हैं। यह कवि मन का इन्द्रियबोध है। ऋवेद के ऋषि के भावबोध में वर्षा के बादल का मुख पत्थर जैसा है। बादल के भीतर मधुरस है। ऋषि कहते हैं कि बृहस्पति ने मधुरस से भरे बादल के मुख को तोड़ा। मधुवर्षा हुई। वस्तुत: ऋषि का मन ही मधुमय है। उसके इन्द्रियबोध में वायु, जल, धरती और समूची सृष्टि मधुमय है।
काव्य की हमारी कोई समझ नहीं। मैं राजनैतिक कार्यकर्ता हूं। लेकिन मधुरसिया होना सृष्टि के हरेक प्राणी का अधिकार है। महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला हमारे पड़ोसी गांव के ही थे। 'जुही की कली उनकी सुन्दर कविता है। 'विजनवन वल्लरी से शुरू होती है यह कविता-कली। मैंने विजनवन वल्लरी नहीं देखी। निराला के अनुसार यह कली 'अमल कोमल तनु है। फिर कली के पास सुदूर क्षेत्र से आता है मलयानिल। निराला के भावबोध में मलयानिल उपवन सरित गहन गिरि कानन लता कुंजों को पार कर आता है। यह मलयानिल उपवन सरित गहन गिरि कानन से आया हो या न आया हो लेकिन इतना पक्का है कि निराला के मन में तरह-तरह के वन उपवन जरूर लहके होंगे। निस्संदेह वन उपवन संसार का भाग है लेकिन वास्तविक वन उपवन हमारे मन के आभास में अपना रूप बदल डालते हैं। कालिदास की अल्कापुरी क्या वैसी ही नगरी हो सकती है? गीतकार ने बसंत को कुसुमाकर कहा है। कालिदास का बसंत विरल है। उनका बसंत वास्तविक बसंत से ज्यादा सुगंधा और मधुवाता है। पुरूरवा और उर्वसी ऋवेद का आख्यान है लेकिन अनेक कवियों ने उसे भिन्न-भिन्न तरह से अनुभव किया। मन बड़ा सर्जक है। यह अनन्त सृष्टि गढ़ता है। बाहर के वन उपवन की तुलना मन का वन उपवन सत्य के ज्यादा निकट है।
मन उपवन भारतीय अनुभूति का सत्य नहीं है लेकिन सत्य के निकट है। अन्तर्यात्रा में मन शरीर का अंतिम छोर है। मन के अंतिम छोर पर अन्त: प्रज्ञा है। लेकिन अन्त: प्रज्ञा मन का भाग नहीं है। मन उत्ताल तरंग वाली लहराती झील है। अन्त: प्रज्ञा स्थिर और प्रशांत नीर। इसीलिए यह नीर-क्षीर की विवेचक है। यह इन्द्रियबोध से परे अनुभूति का तल है। इसके ठीक बाद आत्म बोध का क्षेत्र। यह क्षेत्र 'स्वभावÓ का ही अंतिम छोर है लेकिन अतिगहन। युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया था धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां - धर्म यानी ब्रह्माण्ड का मूल तत्व गुहा में है। ईशावास्योपनिषद् के ऋषि ने बताया है कि स्वर्ण पात्र से ढका हुआ है सत्य का मुख। हे देव। स्वर्ण ढक्कन हटाओ। मैं सत्यानुभूति - सत्य दर्शन चाहता हूं। स्वर्ण ढक्कन मन है। मन का परदा हटे तो आत्मबोध हो। ऐसा हमारे ऋषि और दार्शनिक बता गए हैं। इन पंक्तियों के लेखक की कोई गारंटी नहीं। मन-उपवन तक ही हमारी पहुंच है। संसार के सारे खेल हमारे मन के ही खेल हैं। अपनी अनुभूति बताऊं। हम एक राजनैतिक दल के प्रदेश उपाध्यक्ष थे। मन ने चढ़ाया कि 190 देशों से भी बड़े प्रदेश का उपाध्यक्ष कोई मामूली बात है। वह भी राष्ट्रीय पार्टी के। मन आकाश तक उड़ता था, उड़ाता भी था। असलियत यह थी कि हम वहीं थे, जहां थे। मन को जंच जाए कि हम राष्ट्रीय हैं तो हो गये राष्ट्रीय। लेकिन सत्य यही है कि हम कुछ नहीं होते।
हमारे एक मित्र दवाखाना चलाते थे। चिकित्सक के रूप में भी उनकी ख्याति थी। एस.पी. से उनका काम था। मैंने फोन किया। डॉ. 'कÓ आपके पास आ रहे हैं। वे एस.पी. से मिले। एस.पी. ने हांथ मिलाया आप लोकप्रिय डाक्टर हैं, दीक्षित जी ने बताया है। डाक्टर साहब गदगद हो गये। बोले जी आपकी कृपा से दवाखाना ठीक है वैसे हमने इसी साल बी.टी.सी. के लिए भी अप्लाई कर दिया है। डाक्टर साहब के मन में शिक्षा विभाग की बी.टी.सी. बड़ी थी, लेकिन डाक्टर होना छोटापन। सारा खेल मन का। अमेरिकी कथा है - दो जुड़वां युवा बहनें एक ही कक्षा की छात्रा एक जैसे कपड़े पहन कर सिनेमा गयीं। वापसी में वर्षा हुई। दोनों भीग गयीं। एक ने मम्मी से कहा कि वर्षा ने पिक्चर का मजा दूना कर दिया। मजा आ गया। बड़ी खूबसूरत वर्षा थी। दूसरी बोली पिक्चर बकवास थी, वर्षा ने और गड़बड की। मूड खराब हो गया। परिस्थिति एक मन के खेल अनेक। सौन्दर्य बोध से भरापूरा मन रूखे जंगल को मधुवन देखता है। अस्तित्व के प्रति आस्था से भरापूरा मन पत्थर में ऐश्वर्य और ईश्वर पाता है। उपनिषद् की अनुभूति और योग की प्रतीति है कि मन के पार 'तुरीय तल है, तब मन चंचल नहीं होता। गति नहीं करता। तब समूचा अस्तित्व ही मन को आच्छादित कर लेता है। तब अस्तित्व ही खुलता और खिलता है। मन उपवन मन मधुवन हो जाता है।
मन व्यक्तित्व का नियंता है। वह हमारे इन्द्रियबोध को प्रकाश देता है। यजुर्वेद में इसे 'ज्योति एकं कहा गया है। खण्डित और चंचल मन दुखदायी है। सत्य में केन्द्रित मन 'मनीषा है। ऐसे मन वाले व्यक्ति मनीषी हैं। वैदिक ऋषि मन की क्षमता से परिचित थे। ऋग्वेद में मन को घुमन्तू बताया गया है। यजुर्वेद (34.1-6) में मन को शिव संकल्प से भरने की भव्य स्तुति है। मन खाली रहता नहीं। तृप्त होता नहीं। सदा असंतुष्ट रहना उसका स्वभाव है। लेकिन मन का असंतोष भी जीवन में उपयोगी है। असंतोष कर्मो के लिए ठेलता है। असंतोषी व्यक्ति बहुविधि कर्म करता है। पाल कैरेस ने असंतोष को विकास का मूल माना है लेकिन असंतोषी होने के नुकसान भी हैं। असंतुष्ट व्यक्ति में गहन सौन्दर्यबोध नहीं होता। वह चिन्तित रहता है। उसकी प्रज्ञा स्थिर नहीं रहती। अस्थिर बुद्धि रचनात्मक नहीं होती। इसीलिए भारतीय चिन्तन में 'संतोषं परमसुखं का सूत्र है। लेकिन असंतोष को संतोष में बदलना आसान नहीं होता। इसी के लिए योग, ज्ञान और भक्ति आस्था के सूत्र हैं लेकिन यजुर्वेद के ऋषि की स्तुति के संकेत बिल्कुल ही भिन्न हैं। वह मन में शिवसंकल्प भरना चाहता है। यह ऋषि भी असंतोषी जान पड़ता है। लेकिन असंतुष्ट अभीप्सा बड़ी है। ऋषि लोकमंगल अभीप्सु हैं।
हम सब भी असंतुष्ट रहते हैं। असंतोष की सूची लम्बी है। हमें परिजनों मित्रों की प्रीति चाहिए। समाज में मान सम्मान चाहिए। राजनीति में है तो मंच माला माइक और पद चाहिए। सतत् गुणगान सुनने की भूख हमें असंतुष्ट रखती है। लेकिन यजुर्वेद का ऋषि मन में विश्व कल्याण का संकल्प भरने की स्तुति करता है। विश्व कल्याण न कर पाने का असंतोष खूबसूरत है। असंतोषजनित दुख ही चुनना है तो क्यों न खूबसूरत असंतोषी बना जाये? सतत् जिज्ञासु लोग भी असंतोषी ही होते हैं लेकिन उनकी जिज्ञासा भी सुन्दर हैं। इस जिज्ञासा की पीड़ा और बेचैनी में भी सुन्दरता है। मन को बड़े लक्ष्य से जोडऩा ही सर्वोत्तम है। पतंजलि योग सूत्रों और गीता में एक साथ अभ्यास और वैराग्य शब्द आए हैं। यहां मन को सतत् अभ्यास के माध्यम से प्रशिक्षित करने के मार्गदर्शन हैं। साथ में इस अभ्यास से रागात्मक लगाव न बनाने के भी निर्देश हैं। अभ्यास मन प्रशिक्षण की कार्रवाई ही है। कार्रवाई लक्ष्य नहीं उपकरण है। इसलिए कार्रवाई से राग नहीं वैराग ही उपयोगी है। मन उपवन को मधुवन बनाकर ही विश्व को मधुरस, मधुगंध, मधुप्रीति और मधु अनुभूति वाला मधुवन बनाने की यात्रा का आनंद मिल सकता है। 'मन-मधुवन का सृजन हरेक मधु मंगल कामी की प्राथमिक शर्त है।
