Home > Archived > ज्योतिर्गमय

ज्योतिर्गमय

आत्मशक्ति का अक्षय भंडार

प्रत्येक छोटी-सी दिखने वाली वस्तु के पीछे एक वृहत भंडार होता है। bबूंद के पीछे समुद्र लहरें मार रहा है। बीज के पीछे पेड़ लहलहा रहे हैं, वायु के एक झोंके के पीछे सृष्टि में तूफान उठ रहे हैं। यदि बूंद के पीछे एक वृहत जल का महासागर लहरा रहा है, छोटे से बीज में वृक्ष लहलहा रहे हैं, वायु के पीछे तूफानों का दम है, तो मनुष्य के मन में आत्म ज्ञान के रूप में दिव्य ज्योति की किरण विद्यमान है। हमारे आत्म-ज्ञान के पीछे, ज्ञान की छोटी-सी किरण के पीछे भी एक विशाल कल्पतरु, शक्ति का असीम भंडार, ज्ञान का अक्षय समुद्र है। हमारा आत्मज्ञान अनाथ नहीं है। हमारे शरीर में बैठी हुई प्रत्येक आत्मा एक नन्हीं-सी किरण है जो निरन्तर ईश्वर रूपी ज्ञान सूर्य की ओर संकेत करती है।
जब आप किसी सुन्दर डाली पर हंसते-किलकते सुवासित पुष्प देखते हैं, तो इच्छा जाग्रत होती है कि यदि हम भी ऐसे ही सुन्दर, सुवासित और आकर्षक होते। हममें भी ऐसा ही चटकीला प्यारा-प्यारा रंग होता। हम भी ऐसे ही सरल और आडम्बरशून्य होते। जब हम मोर के पंखों की परम मुग्धकारी, हृदय-विमोहिनी रमणीय चित्रकारी को देखते हैं, या भावमत्त हो उसे नृत्य करते हुए देखते हैं, तो हमारी भी इच्छा होती है कि क्या ही अच्छा होता यदि हम भी ऐसा ही विमोहक नृत्य कर पाते।
हमारे क्षिप्र पांवों की थिरकन हमारे हृदय की गहरी और सच्ची अभिव्यंजना कर पाती. हमारे नृत्य में हमारे हर्ष-विषाद, करुणा-प्रेम-आशा इत्यादि प्रकट हो पाते। जब हम कविता सुनते हैं या भजन गाते हैं, तो अनायास ही इच्छा होती है कि काश हम भी हृदय-स्पर्शी भजन लिखते और भावभीने मधुर गीत गाते, भीतर उठने वाले द्वन्द्वों को भक्तिपूर्ण वाणी में प्रकट करते। भक्ति तथा काव्य के सम्मिश्रण से हमें विशुद्ध आनन्द मिलता और आत्म-श्रद्धा के योग से जीवन शान्तिमय होता। विश्व में व्याप्त प्रत्येक अच्छाई जागृति पैदा करती है।
वह हमें श्रेष्ठता और देवत्व की ओर बढऩे का गुप्त संकेत करती है. श्रेष्ठता और देवत्व की ओर हमारा उत्साह और रुचि पैदा करने वाली हमारी गुप्त आत्मशक्ति ही है. दूसरों के अच्छे और सद्गुणों के प्रति हमारे हृदय में ललक और अनुकरण की इच्छा इस गुप्त आत्मशक्ति के भण्डार के कारण होती है। जहां पृथ्वी पर जल छिपा हुआ होता है, वहां हरे-भरे वृक्ष लहलहाते दृष्टिगोचर होते हैं। इसी प्रकार जहां मनुष्य का आत्मतत्व जागरूक होता है, वहां हमारी प्रवृत्ति आत्मा के दिव्य गुणों की ओर होती है। संसार और समाज में सब श्रेष्ठताओं के रूप में हमारा आत्मतत्व ही बह रहा है। हमारी श्रेष्ठता और सौन्दर्य का मूल केन्द्र हमारी सत्-चित आनंद स्वरूप यह आत्मा ही है। 

Updated : 14 Sep 2013 12:00 AM GMT
Next Story
Top