ज्योतिर्गमय
भय और मृत्यु
एक ऋषि अपने आश्रम के बाहर टहल रहे थे। सहसा उन्होंने देखा कि एक काली-सी भयाकृति वहां चली आ रही है। उन्होंने उसे रोका और पूछा, ''कौन हो तुम?वह बोली, ''मुनि मैं मृत्यु हूं। सुनकर ऋषि हैरानी से बोले, ''तुम्हें अचानक इस गांव में आने की क्या आवश्यकता पड़ गई? मृत्यु बोली, ''मुनिवर मैं कभी भी बिन बुलाए नहीं आती। इस गांव में पचास लोगों का अंत समय निकट आ गया है और मैं उन्हें लेने आई हूं।
यह सुनकर ऋषि चिंतित हो गए और हाथ जोड़कर बोले, ''तुम यहां से वापस चली जाओ। भला इतने लोगों को मारकर तुम्हें क्या मिलेगा? मृत्यु बोली, ''मुनिवर मुझे रोकने का प्रयास न करें। मैं तो शाश्वत सत्य हूं। जिनका अंत समय निकट है उन्हें मैं कैसे छोड़ दूं? यह कहकर वह वहां से आगे बढ़ चली और चलते-चलते बोली, ''मुनिवर वापसी में भी मैं आपसे मिलते हुए जाऊंगी।
कुछ समय बाद वह ऋषि के पास लौटी तो चारों ओर त्राहि-त्राहि मची थी। ऋषि ने उसे तुरंत पहचान लिया और उसके समीप जाकर क्रोध से बोले, ''मुझे नहीं पता था कि तुम झूठ भी बोलती हो। अरे तुमने तो कहा था कि तुम्हें पचास लोगों के प्राण लेने थे, लेकिन तुमने तो पांच सौ लोगों के प्राण हर लिए। तुमने ऐसा अन्याय क्यों किया?
मृत्यु मुस्कराते हुए बोली, ''मुनिवर, न ही मैंने झूठ बोला और न ही कोई अधर्म किया है। मैं तो वास्तव में पचास लोगों की जान लेने गई थी। साढ़े चार सौ लोग तो व्यर्थ ही अपने समय से पहले भयभीत होकर मेरे पास चले आए। मैंने तो उन्हें छुआ भी नहीं था। कहते हुए मृत्यु ने अपने वचन जारी रखे, ''मुनिवर भयभीत प्राणी किसी भी क्षेत्र में नहीं जीत सकता। निडर, धैर्य व दृढ़ इच्छाशक्ति वाला व्यक्ति अवश्य मुझे पराजित कर सकता है। आपके ही गांव के एक किसान ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से मुझे हरा दिया।
मैं उसके प्राण नहीं ले सकी। आप ही बताइए भला मेरा कहां दोष है? दोष तो व्यक्ति के अंदर छिपे उस भय का है जिसके कारण वह अनायास ही मौत का शिकार बनता है। यह कह कर मृत्यु ने ऋषि से आज्ञा मांगी और वहां से प्रस्थान कर गई।