अग्रलेख

निर्णायक स्थिति में पहुंच रहा सीरिया
- डॉ. रहीस सिंह
शनिवार को एक साथ दो खबरें आयीं। एक ब्रसेल्स से जारी हुयी जो एक अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल सहायता समूह 'डॉक्टर्स विदाउट बॉडर्स (मेडसां सॉं फ्रांटिये) के माध्यम से बता रही थी कि हमले के बाद सुबह तीन घण्टों से कम समय में ही डेमस्कस के तीन अस्पतालों में लगभग 3600 मरीजों में न्यूरोटॉक्सिक लक्षण देखे गये थे जिसमें से 355 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। दूसरी यह कि अमेरिका ने भू-मध्य सागर में बैलिस्टिक मिसाइलों से लैस चौथा युद्धपोत भेज दिया है। सवाल यह उठता है कि जो असद कर रहे हैं या अमेरिका जो करने के निर्णय की ओर जा रहा है, उसमें कहीं भी वे उद्देश्य समाहित हैं जो सीरियाइयों के लोगों के हित में हों ? एक सवाल यह भी उठता है कि क्या संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था अप्रासंगिक हो गयी है या फिर यह 'लीग ऑफ नेशन्सÓ जैसी स्थिति में पहुंच गयी है, जिसकी अक्षमता ने दुनिया को विश्वयुद्ध जाने दिया था ?
21 अगस्त को हुए नरसंहार के बाद यह जरूरी हो गया है कि सीरिया में वैश्विक संस्था द्वारा कुछ कदम उठाए जाएं। यद्यपि असद सरकार सीरियाइयों पर रासायनिक हमले से इनकार कर रही है लेकिन यूरोपियन यूनियन इंस्टीट्यूट फॉर सिक्योरिटी स्टडीज और मेडसा सॉ फ्रांटिये के अनुसार 'स्नायुतंत्र को विषाक्त करने वाली जहरीली गैसों का प्रयोग तो हुआ हैै। कार्यकर्ताओं का एक नेटवर्क लोकल कोऑर्डिनेशन कमेटी (एलसीसी) भी मान रहा है कि जिस विषैली गैस से सैकड़ों लोग मारे गये हैं उसका प्रयोग सरकार ने किया है। अभी अमेरिका और उसके कुछ सहयोगी संयुक्त राष्ट्र संघ से जांच कराने की बात कह रहे हैं जबकि रूस ने माना है कि यह हमला विद्रोहियों की तरफ से किया गया था। इसके बाद सीरिया के मुख्य विपक्षी समूह 'सीरियन नेशनल कोलिशन ने यूरोप और अमेरिका से सीरिया को नो फ्लाई जोन घोषित करने के लिए आग्रह किया है। हालांकि उसके द्वारा इस प्रकार की मांग पहले भी की जा चुकी है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां ऐसा करने में असमर्थ साबित हुयी हैं। यही नहीं सीरियाई संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय एजेंडे से बाहर भी रहा है। आखिर इसकी वजह क्या हो सकती है ? क्या इसका कारण यह है कि वैश्विक शक्तियां, विशेषकर अमेरिका तथा उसके सहयोगी और रूस-चीन-ईरान आदि सीरिया पर दो ध्रुवों में विभक्त हो चुके हैं जिसके चलते किसी भी प्रभावी कदम के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं ? इसकी दूसरी वजह शिया और सुन्नी दुनिया का दो खेमों में विभाजन हो सकती है और तीसरी वजह सीरिया की भू-राजनीतिक स्थिति हो सकती जिसके अपने रणनीतिक लाभ हंै।
भू-रणनीतिक वजह के चलते रूस और चीन असद के पीछे खड़े हुए हैं और असद विरोधियों के खिलाफ लडऩे के लिए पर्याप्त हथियार और गोला-बारूद मुहैया करा रहे हैं। गौर से देखें तो सीरिया की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है जो विशेष स्थिति में वैश्विक जियो-स्ट्रैटेजिक केन्द्र के रूप में काम करेगी। यही वजह है कि असद यह धमकी भी दे चुके हैं कि उसकी भौगोलिक स्थिति मिस्र और लीबिया जैसी नहीं है, बल्कि वह भू-राजनीतिक का केन्द्र है इसलिए अगर उसे छेड़ा गया तो परिणाम खतरनाक होंगे। दरअसल सीरिया की सीमा पश्चिम में लेबनान और भू-मध्यसागर को, उत्तर में तुर्की, पूर्व में इराक, दक्षिण में जार्डन और दक्षिण-पूर्व में इजराइल को स्पर्श करती है। इजराइल-फलस्तीन युद्ध के कारण यह क्षेत्र हमेशा से संवेदनशील रहा है। ईरान के शिया बम बनाने की स्थिति में पहुंचना इस क्षेत्र की रणनीति को और भी पेचीदा बना रहा है। एक बात और, तुर्की और इजराइल अमेरिकी छतरी के नीचे हैं और इराक बहुत हद तक अभी भी अमेरिकी रहमो-करम पर। जॉर्डन और अमेरिका के दशकों से बहुत अच्छे सम्बंध हैं। ऐसे में रूस के लिए यह जरूरी है कि सीरिया को प्रत्येक स्थिति में अमेरिका और उसके सहयोगियों के हाथों में जाने से रोके जबकि अमेरिका और उसके सहयोगियों की जरूरत है कि सीरिया का यदि पतन होता है तो उसके पुनर्निर्माण में उनकी भूमिका प्रमुख हो। ये महत्वाकांक्षाएं एक तरफ असद को जनसंहार का लाइसेंस दी हुयी हैं और दूसरी तरफ उस आतंकवाद को हर तरह की मदद दे रही हैं जिसे समाप्त करने के नाम पर अफगानिस्तान और इराक का ध्वंस कर दिया गया। यही महत्वाकांक्षाएं शिया-सुन्नी ताकतों का भी प्रयोग करना चाहती हैं।
दरअसल सीरिया में सुन्नी कुल जनसंख्या के 74 प्रतिशत के बराबर हैं जबकि शिया 13 प्रतिशत हैं (ईसाई 10 प्रतिशत एवं शेष 3 प्रतिशत)। यानि सुन्नी शियाओं पर भारी हंै। यही कारण है कि सीरिया का एक बहुत बड़ा भाग विपक्षियों के कब्जे में है। चूंकि राष्ट्रपति असद शिया हैं, इसलिए न केवल सीरिया का शिया जनमत असद के पक्ष में है बल्कि ईरान, लेबनान सहित कई देशों का शिया समुदाय उनके पक्ष में खड़ा हो रहा है। पहले सीरिया की 10 प्रतिशत ईसाई आबादी भी असद के पक्ष थी, लेकिन अब वह स्वयं भयभीत है। शिया-सुन्नी खेमेबंदी केवल सीरिया के भीतर तक ही सीमित नहीं है बल्कि फारस और सम्पूर्ण अरब जगत अब शिया और सुन्नी धड़ों (कुर्दों को अलग करें तो तीन धड़ों) में बंटा हुआ नजर आ रहा है। विश्व शक्तियां इन दो ध्रुवों को अपने-अपने हिसाब से इस्तेमाल करने की युक्ति पर काम कर रही हैं। चूंकि शिया विश्व का नेता होने का दावा ईरान के पास है इसलिए वह भी असद के साथ है और उसकी विशेष कृपा के पात्र हमास और हिजबुल्ला प्रतिबद्ध सिपहसालारों की भूमिका में हैं। यही नहीं, सूत्र बताते हैं कि सीरियाई राष्ट्रपति की सुरक्षा भी ईरान के रिवोल्यूशनरी गाडर््स कर रहे हैं और लगभग 8000 हिजबुल्ला के छापामार सीरिया में विद्रोहियों से लोहा ले रहे हैं।
ऐसा नहीं कि दूसरा पक्ष इससे पीछे है। जहां तक विरोधियों का पक्ष है तो अधिकांश सुन्नी अरब दुनिया प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनके साथ है। इसके अतिरिक्त अलकायदा जैसे संगठन की छत्रछाया में उसके सहयोगी आतंकी संगठन, जैसे जबात-अल-नुसरा खुले आदि के लड़ाके असद के खिलाफ लड़ रहे हैं, इराक से हजारों की संख्या में सुन्नी लड़ाके सीरिया में डटे हुए हैं, टर्की असद के खिलाफ और अमेरिका, फ्रांस तथा ब्रिटेन आदि विद्रोहियों का समर्थन एवं सहयोग कर रहे हैं। लेकिन उक्त स्थितियों के कारण अमेरिका प्रशासन असमंजस में रहा और बार-बार रेड लाइन की बात करता रहा। लेकिन ऐसा लगता है कि अब अमेरिका निर्णायक स्थिति में पहुंच रहा है। अमेरिका ने भूमध्य सागर में केवल अपने चौथे युद्धपोत की तैयारी ही नहीं की है बल्कि सीरिया के मुद्दे पर कूटनीतिक गतिविधियां भी तेज कर दी हैं। उल्लेखनीय है कि अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने ब्रिटेन, फ्रांस, जॉर्डन, कतर, तुर्की, रूस, र्जमनी, संयुक्त अरब अमीरात, इटली और मिस्र में अपने समकक्षों से बातचीत तेज कर दी है और पेंटागन से कह दिया गया है कि उसकी यह जिम्मेदारी है कि सभी तरह की आकस्मिक स्थिति बनने पर राष्ट्रपति को विकल्प मुहैया कराए।
बहरहाल अब लग रहा है कि पिछले 28 माह से सीरिया में जारी लड़ाई अब किसी निश्चित परिणाम तक अवश्य पहुंचेगी। देखना यह है कि निर्णायक भूमिका किसकी होगी।
