ज्योतिर्गमय
अपनी जरूरत आप पूरी करें
प्रगति के पथ पर चलते हुए यदि दूसरों का सहयोग मिल सकता है, तो उसे प्राप्त करने में हर्ज नहीं। सहयोग दिया जाना चाहिए और आवश्यकतानुसार लेना भी चाहिए।
पर इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि हमारी मूलभूत आवश्यकता हमें स्वयं ही पूरी करनी पड़ती है, दूसरों के सहयोग से थोड़ा ही सहारा मिलता है। बाह्य सहयोग को आकर्षित करने और उससे समुचित लाभ उठाने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि अपनी निज की मन:स्थिति सही और संतुलित हो। इसलिए प्रथम महत्व दूसरों का नहीं रहता, अपना ही होता है।
दूसरों के सहयोग की आशा करने में, उससे लाभ उठाने की बात सोचने से पूर्व आत्म-निरीक्षण किया जाना चाहिए कि हम सहयोग के अधिकारी भी हैं या नहीं ? मात्र बाहरी सहयोग से न किसी का कुछ काम चल सकता है और न भला हो सकता है।
दूसरों का सहारा तकने की अपेक्षा हमें अपना सहारा तकना चाहिए, क्योंकि वे सभी साधन अपने भीतर प्रचुर मात्रा में भरे पड़े हैं जो सुव्यवस्था और प्रगति के लिए आवश्यक हैं। मस्तिष्क में वह क्षमता मौजूद है, जिसे थोड़ा-सा सहारा देकर उच्च कोटि के विद्वान अथवा बुद्धिमान कहलाने का अवसर मिल जाय।
हाथों की संरचना अद्भुत है। यदि उन्हें सही रीति से उपयुक्त काम करने के लिए साधा जा सके तो वे अपने काम से संसार को चमत्कृत कर सकते हैं। मनुष्य का पसीना इतना बहुमूल्य खाद है जिसे लगाकर हीरे-मोतियों की फसल उगाई जा सकती है।
शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान के ज्ञाता आश्चर्यचकित हैं कि इस छोटे से मानव पिण्ड में भी एक से एक बढ़कर कैसी अद्भुत क्षमताओं को किसी कलाकार ने किस कारीगरी के साथ संजोया है? कोशिकाओं और ऊतकों की क्षमताओं और हलचलों को देखकर लगता है कि जादुई-देवदूतों की सत्ता प्रत्येक जीवाणु में भर दी गई है। क्रियाकलाप और मानसिक चिंतन तंत्र किस जटिल संरचना और किस संरक्षण, संतुलन का प्रदर्शन करता है, उसे देखकर हतप्रभ रह जाना पड़ता है।
पिण्ड की आंतरिक संरचना जैसी अद्भुत है, उससे असंख्य गुनी क्षमता बाह्य जीवन में अग्रगामी और सफल हो सकने की भरी पड़ी है। मनोबल का यदि सही दिशा में प्रयोग हो सके तो फिर कठिनाई नहीं रह जाएगी। अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था ही है, जो हमें दीन-हीन और लुंज-पुंज बनाए रखती है।
दूसरों का सहारा इसलिए तकना पड़ता है कि हम अपने को न तो पहचान सके और न अपनी क्षमताओं को सही दिशा में, सही रीति से प्रयुक्त करने की कुशलता प्राप्त कर सके। शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद ने ही हमें इस गई-गुजरी स्थिति में रखा है कि दूसरों का सहारा ताकना पड़े। यदि आत्मावलंबन की ओर मुड़ पड़ें, तो फिर परावलंबन की कोई आवश्यकता ही प्रतीत न होगी।