ज्योतिर्गमय
व्यवस्था और अनुशासन
जब हम शाला जाते हैं, तब वहां हमें शारीरिक और मानसिक व्यायाम करवाए जाते हैं, क्या यह हमें तकलीफ में डालने के लिए करवाया जाता है? नहीं! अपितु इसलिए सिखाया जाता है कि हम अपने आप को गढना सीख सकें। यह कार्य हम अकेले एक कोने में बैठ कर नहीं कर सकते। अत: सामूहिक रूप से किए गए कार्य का असर काफी महत्वपूर्ण होता है। इससे व्यक्ति सीखता है कि जीवनयापन किस तरह करना है और जीवन में आने वाली कठिनाईयों से कैसे जूझना है। वरिष्ठ लोगों का अनुभव भी इसमें काफी लाभदायक और प्रेरक होता है।
जीवन में अपने आप को व्यवस्थित करना भी सीखना चाहिए। जो अपने आप को व्यवस्थित नहीं कर पाते, उनमें आत्म संयम और अनुशासन का अभाव हो जाता है। कुछ बच्चे ऐसे होते हैं, जो नहीं जानते, कि अपनी चीजों को कैसे व्यवस्थित और साफ-सुथरा रखा जावे। शाला से घर लौटते ही, अपने जूते, बैग, टाई, यूनीफार्म इधर-उधर फेंक देते हैं। यहां तक कि, पढ़ाई समाप्त होने के पश्चात् इनकी पुस्तकें, कापियां, पेन आदि ये कहां रख रहे हैं यह तक नहीं जानते। बाद में, इन चीजों को ढूंढने और इक_ा करने में काफी तकलीफ उठानी पड़ती है।
यह स्वभाव असंयत प्रकृति का द्योतक है। ऐसे व्यक्ति बाहर से नहीं, अंदर से भी अव्यवस्थित रहते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो बाह्य रूप से खूब स्वच्छ और सुसंस्कृत दिखते हैं किन्तु इनके कमरे की एक आलमारी खोलो या एक दराज खींचो तो वह एक युध्द क्षेत्र नजर आता है। सभी चीजें वहां खिचड़ी हो रही हैं। उनका मस्तिष्क भी बहुत कुछ वैसा ही होता है। एक छोटा सा मस्तिष्क जहां नाना प्रकार के विचार और भावनाएं ठीक उसी अवस्था में रहते हैं। जिस अवस्था में उनकी आलमारी मे चीजें रहती हैं अर्थात् आंतरिक रूप से ऐसे व्यक्ति सुव्यवस्थित नहीं होते।
हर व्यक्ति का अपना एक निजी नियम होता है जो उसके स्वयं के लिए, सत्य और सुविधाजनक होता है। आवश्यकता है केवल अच्छी तरह सोच समझ कर समुचित रूप से उसकी व्यवस्था करना।
श्री मां कहती हैं कि ईश्वर की उपासना करने के लिए यह जरूरी नहीं कि, किसी पवित्र स्थान या वीराने में ही ईश्वर की तपस्या की जावे। एक साधारण गृहस्थ भी ईश्वर की उपासना ईश्वर का सच्चा साधक बन सकता है, आवश्यकता है केवल संपूर्ण समर्पण की। बच्चा जब रोता है तब मां उसे बहलाने के लिए, कुछ खिलौने दे देती है और अपना कार्य करने लगती है। यदि बच्चा फिर रोता है तो उसे मिठाईयों से बहलाया जाता है। बच्चे का ध्यान मिठाई में लगाकर मां अपने पारिवारिक कार्यों को निबटाने लगती है। जगत में भी यही होता है, जब हम ईश्वर को पाने के लिए भक्ति करते हैं तो ईश्वर हमारा ध्यान हटाने के लिए, हमें वैभव, सुख, समृद्धि प्रदान करते हैं, जिन्हें पाकर हम ईश्वर को भूल जाते हैं और उन्हीं भौतिक वस्तुओ में लिप्त हो जाते हैं।
यदि किसी का ध्यान इन चीजों से हटकर फिर से ईश्वर के ध्यान में लग जावे तो ईश्वर उसकी परीक्षा लेने के लिए, धन के साथ ही साथ इात, नाम और अन्य भौतिक वस्तुओं से उसे लुभाने का प्रयास करते हैं। सच्चा भक्त वही है, जो इन सब लोभनीय वस्तुओं का त्याग कर पूर्ण रूप से ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाये तभी वास्तव में वह ईश्वर को पाने का अधिकारी होता है।
सुबह की शुरूआत ओंकार से करना चाहिए। ओंकार में बहुत शक्ति है। 'अहं' या मैं को भूलकर ईश्वर में रम जाओ, जहां 'मैं' आया वहां ईश्वर को तुमने खो दिया यह निश्चित है। प्रार्थना में भी बड़ी शक्ति है। प्रार्थना के द्वारा ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करो कि संपूर्ण दिन तुम्हें समर्पित करता हूं और रात भर में जो गलतियाँ हुई हों, हे ईश्वर उसके लिए मुझे माफ कर। ईश्वर को पहले अर्पण करो फिर भोजन का ग्रास ग्रहण करो।
ईश्वर को पाने के लिए कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है। वह आपके अंदर ही है, उसे सिर्फ पहचानना है और अनुशासित रखने का प्रयत्न करो तभी पूर्ण रूप से समर्पित हो सकोगे।