ज्योतिर्गमय
मनुष्य खास क्यों?
कहा जाता है कि मानव जन्म प्राप्त करना आसान नहीं है। और एक बार अगर आपने मानव शरीर पा लिया, तो आप प्रकृति के हाथों में नहीं रहते। अब आपके पास, स्वतंत्र इच्छा नामक एक दुर्लभ क्षमता होती है जिससे विकास के आगे की प्रक्रिया शुरू होती है। दूसरी तरफ एक पशु कुछ साल जीने और अपनी संतान को जन्म देने के बाद संतुष्ट हो जाता है। मनुष्य को शारीरिक रूप से भी वयस्क होना होता है। अपनी भूख प्यास को तुष्ट कर और दुर्घटनाओं व बीमारियों से बचकर आपको अपना जीवनयापन करना होता है। सभी जीवों में पाई जाने वाली जीने की इच्छा के द्वारा संभव हो सकने वाली यह प्रक्रिया प्राकृतिक है। शारीरिक वयस्कता के उलट भावनात्मक विकास आपके अपने हाथों में होता है। आंतरिक परिपक्वता की प्रक्रिया आपको स्वयं शुरू करनी होती है, क्योंकि आप मनुष्य हो जिनके पास चुनने का अधिकार है। हालांकि,प्रत्येक व्यक्ति कुछ अजीब ढूंढता है। जो चार सार्वभौम छोर मनुष्य छूने का प्रयास करता है, वे हैं- सुरक्षा, आनंद, अर्थ और कर्म। मनुष्य अन्य दो पुरुषार्थों- धर्म और मोक्ष को भी प्राप्त कर सकते हैं।
संस्कृत में अर्थ उसे कहा जाता है जो भावनात्मक, आर्थिक या सामाजिक सुरक्षा देता है। अर्थ नकद भी हो सकता है, लिक्विड ऐसेट भी, स्टॉक, रियल एस्टेट, संबंध, एक घर, एक अच्छा नाम, एक पहचान, प्रभाव या किसी भी तरह की शक्ति हो सकती है। हालांकि, हर व्यक्ति को अलग-अलग तरह की सुरक्षा चाहिए होती है, पर सुरक्षा सभी को चाहिए होती है। आनंद की खोज एक अन्य पुरुषार्थ है, जिसे संस्कृत में काम कहा जाता है। यह भी कई प्रकार का होता है। जैसे, ऐंद्रिय प्रसन्नता सीफूड से लेकर आइस क्रीम तक कुछ भी हो सकती है। बुद्धिजीवी आनंदों के उदाहरणों पर बात करें तो कोई विशेष खेल खेलने से, पहेलियां बूझने से, कहीं से ज्ञान प्राप्त करने से जो प्रसन्नता मिलती है उसे बुद्धिजीवी आनंद कहते हैं। इस प्रकार हमारे पास आनंद के भी कई प्रकार हैं।
कोई भी चीज जो आपकी इंद्रियों को संतुष्ट करे, आपके मस्तिष्क को अच्छी लगे, आपका दिल छू जाए और आपमें एक प्रकार की सराहना का भाव जगा जाए, उसे काम कहते हैं। एक अन्य प्रकार का आनंद भी है जो खूबसूरत रात में सितारों को देखने, सूर्योदय का मजा उठाने, एक फूल, खेलते हुए बच्चे या खूबसूरत पेंटिंग देखने इत्यादि से मिलता है। हालांकि ऐसे आनंद किसी व्यक्ति की इंद्रियों या बुद्धि से संबंधित नहीं हैं, फिर भी उसे काम कहते हैं।
तीसरी तरह का पुरुषार्थ है धर्म जो कि न तो अर्थ है और न ही कर्म। यह सामंजस्य से उपजता है, मित्रता से, बांटने से, दूसरों की सहायता करने से मिलता है। उदाहरण के लिए अगर आप किसी व्यक्ति की परेशानी दूर कर सुखी महसूस करते हैं तो उसे काम नहीं कहते।