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ज्योतिर्गमय

जैसा खाए अन्न वैसा बने मन

यह कहावत बहुत पुरानी है पर आज भी बहुत ठीक है। आप की कमाई कैसी है ईमानदारी मेहनत की या बेईमानी भ्रष्टाचार की और उस कमाई से जो भी लिया जाएगा, अन्न हो या और कोई सम्पत्ति, बच्चों की शिक्षा, ऐशो आराम के साधन मकान, जमीन, जायदाद, गाड़ी या अन्य सामान अंततोगत्वा वे सब आपको चैन से जीने तो नहीं देंगे। कमाते आप हैं और खर्च सब करते हैं कोई यह नहीं सोचता कि यह पैसा कैसा है। सभी पाप की कमाई के भागीदार बनते हैं जाने अनजाने में। महाकवि ऋषि बाल्मिकी पहले डाकू हुआ करते थे उन्हें किसी ऋषि ने कहा कि तुम लूटकर जो धन लाते हो उसका क्या करते हो तो उन्होंने कहा परिवार को देता हूं खर्च करने के लिए तब उस ऋषि ने पूछा कि क्या तुम्हारा परिवार तुम्हारे इस धन का उपयोग कर तुम्हारे पापों के फल में हिस्सा बंटाएगा जाओ पूछो तब उन्होंने पूछा और वापस आकर ऋषि से कहा कि कोई भी सदस्य पाप का फल भोगने के लिए तैयार नहीं है तो ऋषि ने कहा कि सारा पाप अपने सिर पर ढोकर तुम यह क्या कर रहे हो। अकेले भोगोगे तो उनकी आंखें खुल गर्इं और उन्होंने डकैती छोड़ दी। ऋषि जीवन ग्रहण किया महा कवि बने रामायण लिखी। उनके आश्रम में सीता ने लव-कुश को जन्म दिया जब उन्हें निकाल दिया गया था एक धोबी के आरोपों के कारण। खैर यह एक लम्बी कथा है। कहने का मतलब यह है कि सब सुख ऐशो आराम के साथ हैं। दुख तकलीफ कोई अपने हिस्से में नहीं लेना चाहता तो हम पाप क्यों करते हैं। पाप की कमाई क्यों करते हैं। पर आज सारा देश भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। ऐसे ऐसे कांड उजागर हो रहे हैं लगता है आदमी कितना भूखा, प्यासा है कि भूख मिटती नहीं। अब ईमानदार लोग चिराग लेकर ढूंढने से नहीं मिलेंगे। भ्रष्टाचार सिर्फ पैसों से नहीं होता और भी कई तरीके हैं। मैं यह सुझाने के लिए यह लेख नहीं लिख रहा हूं।
मेरा कहना तो यही है कि गंगा गंगोत्री से ही मैल हो गई है। तो बाद में कितनी सफाई करेंगे। क्या साफ करना मुमकिन होगा। बाबा रामदेव और कई लोगों ने मिलकर गंगा की सफाई, देश से भ्रष्टाचार उन्मूलन का अभियान छेड़ा है पर यहां तो संत्री से लेकर मंत्री तक सभी भ्रष्ट हैं फिर क्या उम्मीद करें। फिर भी उम्मीद नहीं छोडऩी चाहिए। उम्मीद पर दुनिया कायम है। कभी न कभी तो परिवर्तन होगा। चमत्कार होगा बस इंतजार करिए और आप स्वयं को इससे दूर रखिए। क्योंकि हर अच्छे काम की शुरुआत स्वयं से होनी चाहिए। तभी हम दूसरों से उम्मीद कर सकते हैं। स्वयं उदाहरण बने। स्वयं अपने दीप बने प्रकाश फैलाएं, स्वयं प्रकाशित हों दूसरों को प्रकाश दें। पुरानी कहावतें कितनी सटीक बनी हुई हैं कि आज भी उसका अर्थ वही निकलता है जो पहले था। सार्वकालिक अर्थ है। आदमी की मूलभूत कुछ कमजोरियां होती है जो सभी कालों में चलती है। पौराणिक काल से आज तक चल रही है। मनुष्य के मन से ही सब अच्छाई बुराई जन्म लेती है पनपती है फलती-फूलती है।
परिणाम तो बाद में आता है तब तक बहुत देर हो चुकी रहती है। इसलिए नारा दिया गया है कि हम सुधरेंगे जग सुधरेगा। स्वयं से प्रारंभ करें बस यही मेरा संदेश है।

Updated : 10 Jun 2013 12:00 AM GMT
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